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________________ १४ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः तद्यथा-बहुं धारयति बहुविधं धारयति पुराणं धारयति दुर्द्धरं धारयति अनिश्रितं धारयति असंदिग्धं धारयति । यत् बहुबहुविधक्षिप्रानिश्रितनिश्चितध्रुवेतरविभिन्ना । यत्पुनरवग्रहादयोऽतस्तत्पत्रिंशदधिकत्रिशतभेदं ॥ इति भाष्यकारेण. भाषा टीका-अवग्रह मति ज्ञान छै प्रकार का होता है-क्षिप्र, बहुविध, ध्रुव, अनिःसृत और असंदिग्ध । इसी प्रकार ईहामति के भी छै भेद होते हैं । अवायमति के भी यही छै भेद हैं और धारणा के निम्नलिखित छै भेद हैं-बहु, बहुविध, पुराण, दुर्द्धर, अनिःश्रित और असंदिग्ध । अवग्रह आदि के इन छै भेदों के अतिरिक्त छै इनके उनटे भेद भी हैं-बहु का अल्प, बहुविध का एकविध, क्षिप्र का अक्षिप्र, अनिःसृत का निःसृत, निश्चित का अनिश्चित तथा ध्रुव का अध्रुव । इन सब भेदों को जोड़ने से मतिज्ञान के ३३६ भेद होते हैं। ऐसा भाष्यकार ने कहा है। संगति–उपरोक्त भेदों में धारणा के भेदों में क्षिप्र तथा ध्रुव के स्थान में पुराण और दुर्द्धर आता है । भाष्यकार के भेदों में अनुक्त के स्थान में निश्चित आता है। किन्तु यह भेद कोई बड़ा भेद नहीं है। मतिज्ञान से बाहिर न यह हैं न वह हैं। मुख्य बात मतिज्ञान के भेद सम्बन्धी है, जिसके विषय में आगम और तत्त्वार्थसूत्र दोनों एक मत हैं। अतएव इसमें कुछ भी भेद नहीं समझना चाहिये। "अर्थस्य" ॥ से किं तं अत्थुग्गहे ? अत्थुग्गहे छव्विहे पण्णत्ते, तं जहासोइन्दियअत्युगहे, चक्खिदियअत्थुग्गहे, घाणिंदियअत्युग्गहे, जिभिदियअत्युग्गहे, फासिंदिय अत्युग्गहे, नोइन्दिय अत्थुग्गहे। नन्दिसूत्र ३०. छाया- अथ किं सः अर्थावग्रहः? अर्थावग्रहः षड्विधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा श्रोत्रेन्द्रियार्थावग्रहः, चक्षुरिन्द्रियार्थावग्रहः, घ्राणेन्द्रियार्थावग्रहः, जिह्व
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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