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________________ २१८ ] तत्त्वार्थसूत्रजनाऽऽगमसमन्वय : ९,२७. उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्महुर्तात् । केवतियं कालं अवट्टियपारिणामे होज्जा ? गोयमा ! जहन्नणं एक समयं उक्कोसेण अन्तमुहुत्तं । - व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ० ६, सू० ७७०. अंतोमुत्तमित्तं चित्तावस्थाणमेगवत्थुम्मि । छउमत्थाणं झाणं जोगनिरोहो जिणाणं तु । स्थानांग वृत्ति० स्थान ४, उ० १, सू० २४७. छाया- कियत्कालं अवस्थितपरिणामः भवति ? गौतम! जघन्येन एकं समयं उत्कर्षेण अन्तर्मुहुत। अन्तर्मुहुर्तमात्रं चित्तावस्थानमेकत्र वस्तुनि । छद्मस्थानां ध्यानं योगनिरोधः जिनानान्तु ॥१॥ प्रश्न - निश्चत (ध्यान के ) परिणाम कितनी देर तक रहते हैं ? उत्तर - कम से कम एक समय तक और अधिक से अधिक अन्तर्मुहुर्त तक। छमस्थ और जिन के मन वचन और काय की क्रियाओं का रोकना ही ध्यान होता है। संगति – यह बात स्मरण रखने की है कि क्षपक श्रेणि उत्तम संहनन वाले ही बांधते हैं। ___ आर्त्तरौद्रधर्मशुक्लानि। चत्तारि झाणा पण्णत्ता, तं जहा-अट्टे झाणे, रोद्दे झाणे, धम्मे झाणे, सुक्के झाणे। व्याख्याप्रज्ञप्ति श० २५, उ०७, सू०८०३. ६,२८.
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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