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________________ २०४ ] तत्वार्थ सूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : पायानुप्रेक्षा, संवरानुप्रेक्षा या त्वास्राविणी नौः, न सा पारस्य गामिनी । या निरास्त्राविणी नौः, सा तु पारस्य गामिनी ॥ निर्जरानुप्रेक्षा, लोकानुप्रेक्षा, बोधिदुर्लभानुभक्षा संबुध्यध्वं किं न बुद्धध्वं संबोधी खलु प्रेत्य दुर्लभः । नैव उपनमंति रात्र्यः, नैव सुलभं पुनरपि जीवितं ॥ धर्मानुप्रक्षा उत्तमधर्मश्रुतिः खलु दुर्लभा । भाषा टीका - १. अनित्य अनुप्र ेक्षा [ संसार के पदार्थों जीवन काय आदि को भी नाशवान् क्षणभंगुर अनित्य समझना, ] २. शरण अनुक्षा- [ सिंह के हाथ में पड़े हुए मृग के समान इस संसार में इस जीव को शरण देकर इसकी रक्षा करने वाला कोई नहीं है । ] ३. एकत्व अनुप्र ेक्षा अकेला ही जाना है। ऐसा बारंबार चितवन करना । ] ४. संसार अनुप्रक्षा - [ यह जीव इस संसार में सदा जन्म लेकर के भ्रमण स्वरूपका बारंबार चितवन - [ यह जीव संसार में अकेला ही आया है और इसको करता रहता है। यह संसार दुःखरूप है आदि संसार करना । ] ५. अन्यत्व अनुप्र ज्ञा - जाति के सम्बन्ध भिन्न हैं और मैं भिन्न हूँ । [ इस प्रकार बारंबार चिन्तवन करना । ] - ६. अशुचि भावना - यह शरीर अनित्य, अपवित्र, अपवित्र पदार्थों से उत्पन्न हुआ, रहने का क्षणभंगुर स्थान है और दुःख तथा क्ल ेशों का भाजन है। [ ऐसा बारंबार चिन्तवन करना । ]
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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