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________________ [ १८७ १. गतिनाम, २. जातिनाम, ३. शरीरनाम, ४. शरीराङ्गोपाङ्गनाम, ५. शरीरबन्धननाम, ६ शरीरसंघात नाम, ७ संहनन नाम, ८ संस्थान नाम, वर्णनाम, १० गन्ध नाम, ११ रसनाम, १२ स्पर्शनाम, १३ अगुरुलघुनाम, १४ उपघातनाम, १५ परघातनाम, १६ श्रनुपूर्वीनाम, १७ उछवासनाम, १८ श्रातपनाम, ११ उद्योतनाम, २० विहायोगतिनाम, २१ त्रसनाम, २२ स्थावरनाम, २३ सूक्ष्मनाम, २४ बादरनाम, २५ पर्याप्तनाम, २६ अपर्याप्तनाम, २७ साधारणशरीर नाम, २८ प्रत्येकशरीरनाम, २३ स्थिरनाम, ३० अस्थिरनाम, ३१ शुभनाम, ३२ अशुभनाम, ३३ सुभगनाम, ३४ दुर्भगनाम, ३५ सुस्वरनाम, ३६ दुःस्वरनाम, ३७ श्रदेयनाम, ३८ अनादेयनाम, ३३ यशः कीर्तिनाम, ४० अयशः कीर्तिनाम, ४१ निर्माणनाम, ४२ तीर्थ करनाम । अष्टमोऽयायः - संगति १. जिसके उदय से आत्मा भवान्तर के प्रति सम्मुख होकर गमन को प्राप्त होता है सो गतिनाम कर्म है। यह चार प्रकार का होता है - १ नरकगति, २ तिर्यचगति ३ देवगति और ४ मनुष्य गति । २. उक्त गतियों में जो अविरोधी समान धर्मों से आत्मा को एक रूप करता है सो जातिनाम कर्म है। उसके पांच भेद हैं- एकेन्द्रियजातिनामकर्म, द्वीन्द्रियजातिनाम कर्म, श्रींद्रियजातिनामकर्म, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म, और पंचेंद्रियजातिनाम कर्म । ३. जिसके उदय से शरीर की रचना होती है उसे शरीर नामकर्म कहते हैं । यह भी पांच प्रकार का है – औदारिकशरीर, वैक्रियिकशरीर, आहारकशरीर, तैजसशरीर और कार्मणशरीर । ४. जिसके उदय से शरीर के अंग उपांगों का भेद प्रगट हो उसको शरीराङ्गोपाङ्गनामकर्म कहते हैं । मस्तक, पीठ, हृदय, बाहु, उदर, जांघ, हाथ, और पांव इनको तो अंग कहते हैं और इनके ललाट नासिका अदि भागों को उपांग कहते हैं। अंगोपांग नाम कर्म तीन प्रकार का है - १ औदारिकशरीरांगोपांग, २ वैक्रियिक शरीरांगोपांग और ३ आहारकशरी रांगोपांग । ५. जिसके उदय से शरीर नाम कर्म के वश से ग्रहण किये हुए आहारवर्गणा के पुद्गलस्कन्धों के प्रदेशों का मिलना हो, वह शरीरबन्धन नाम कर्म है। यह पांच प्रकार का होता है – औदारिक बन्धन नाम कर्म, वैक्रियिक बन्धन नाम कर्म, आहारक बन्धन
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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