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________________ तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वय : तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा समाहिं उप्पाएति, समाहिकारएणं तमेव समाहि पडिलभइ। . ___व्याख्या० शत०७, उ० १, सू० २६३. छाया- श्रमणोपासकः तथारूपं श्रमणं वा यावत् प्रतिलाभ्यन् तथा रूपस्य श्रमणस्य वा माइनस्य वा समाधि उत्पादयति, समाधिका रकेण तमेव समाधि प्रतिलभते । भाषा टीका-श्रमणोपासक तथारूप श्रमण अथवा माहन (श्रावक) को यावत् माहार आदि देता हुआ तथा रूप श्रमण अथवा माहन को समाधि उत्पन्न करता है। समाधि ही के कारण से उसको भी समाधि की प्राप्ति होती है। संगति-उपरोक्त पागम वाक्य में दान का लक्षण करते हुए उसका महत्व भी बतलाया है। जो कि सूत्र के " अनुग्रहार्थ' ' पद से स्पष्ट है। विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेषः । ७, ३६. दव्वसुद्धणं दायगसुद्धणं तवस्सिविसुद्धणं तिकरणसुद्धणं पडिगाहसुद्रेणं तिविहेणं तिकरणसुद्धेणं दाणेणं । व्याख्या प्र० श० १५, सू० ५४१. छापा- द्रव्यशुद्धेन दायकशुद्धन तपस्विशुद्धेन त्रिकरणशुद्धेन प्रतिगाह शुद्ध न त्रिविधेन त्रिकरणशुद्धन दानेन । भाषा टीका-द्रव्य शुध्द से, दातृ शुध्द से, तपस्वि शुध्द से, त्रिकरण (मन वचन काय) शुध्द से, पात्र शुध्द से दान की विशेषता होती है। संगति-इन सभी सूत्र और पागम वाक्यों के अक्षर प्राय : मिलते हैं। जहां कहीं भेद है तो वह शाब्दिक हो है। तात्विक बिल्कुल नहीं है। इति श्री-जैनमुनि-उपाध्याय-श्रीमदात्माराम महाराज-संगृहीते सत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वये * सप्तमोऽध्यायः समाप्तः ॥७॥ *
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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