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चतुर्थाध्यायः
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॥२३५।। पंचम वेयक की जघन्य आयु छब्बीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु सत्ताईस सागर होती है ॥२३६ ॥ छटे प्रवेयक की जघन्य आयु सत्ताईस सागर तथा उत्कृष्ट आयु अट्ठाईस सागर होती है ॥ २३७ ॥ सातवें प्रवेयक की जघन्य आयु अट्ठाईस सागर तथा उत्कृष्ट आयु उनतीस सागर है ॥ २३८ ॥ आठवें प्रवेयक की जघन्य आयु उनतीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु तीस सागर होती है ॥ २३६ ॥ नौवें अवेयक की जघन्य भायु तीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु इकत्तीस सागर होती है २४० ॥ विजय वैजयन्त जयन्त और अपराजित नाम के अनुत्तर विमानों की जघन्य आयु इकत्तीस सागर तथा उत्कृष्ट आयु तेंतीस सागर होती है ॥ २४१॥ सर्वार्थसिद्धि नाम के महाविमान की उत्कृष्ट और जघन्य आयु तेंतीस सागर होती है। इस प्रकार वैमानिक देवों की स्थिति का वर्णन किया गया ॥२४२॥
संगति-यह पीछे दिखलाया जा चुका है कि आगमों के इस वर्णन में सूत्रों से थोड़ा स्वर्गों की संख्या के विषय में मत भेद है। आगमों ने बारह स्वर्ग और उनके बारह ही इन्द्र माने हैं। किन्तु सूत्रों में सोलह स्वर्ग और उनके बारह इन्द्र माने गये हैं। आगमों ने ब्रह्मोत्तर, कापिष्ट, शुक्र और शतार स्वर्ग के अस्तित्व को नहीं माना है। अतएव स्वर्गों की आयु के विषय में भी नाम मात्र का थोड़ा भेद आगया है। सूत्र तथा दिगम्बर ग्रन्थों में महाशुक्र की उत्कृष्ट आयु सूत्र में सोलह सागर से कुछ अधिक और आगम में सतरह सागर मानी गई है। सूत्र में आनत प्राणत की उत्कृष्ट आयु बीस सागर की तथा आगम में पानत की उन्नीस सागर और प्राणत की उत्कृष्ट आयु बीस सागर मानी गई है। सूत्र में पारण अच्युत की उत्कृष्ट भायु बाईस सागर तथा गम में आनत की इक्कीस
और प्राणत की उत्कृष्ट आयु बाईस सागर मानी गई है। नव प्रैवेयक की आयु दोनों की समान है। दिगम्बरों में नव वेयकों के पश्चात् एक पटल नव अनुदिश का माना गया है
और उसके उपर एक पटल विजयादिक पांच अनुत्तर विमानों का माना गया है। सूत्र के 'च' पद से उन्ही नव अनुदिशों का ग्रहण करना सर्वार्थसिद्धि आदि तत्वार्थसूत्र की टीकाओं में माना गया है। दिगम्बरों के अनुसार नव अनुदिशों की उत्कृष्ट आयु बत्तीस सागर तथा पांच अनुत्तरों की उत्कृष्ट भायु तेंतीस सागर मानी गई है। किन्तु आगम प्रन्थों ने नव अनुदिशों का अस्तित्व नहीं माना है। अत : उनमें विजयादि चार विमानों की उत्कृष्ट आयु बत्तीस सागर और सर्वार्थसिध्दि की उत्कृष्ट मायु तेंतीस सागर