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________________ १०२ ] तत्त्वार्थसूत्रजैनाऽऽगमसमन्वयः प्रचारकाः । महाशुक्रसहस्रारयोः कल्पयोः देवाः शब्दप्रचारकाः। आनतप्राणताऽऽरणाऽच्युतेषु कल्पेषु देवाः मनःप्रचारकाः । |वेयकाऽनुत्तरोपपादिकाः देवाः अप्रचारकाः। प्रश्न - भगवन् ! प्रचारणा कितने प्रकार की होती है? उत्तर – गौतम ! पांच प्रकार की होती है-काय प्रचारणा, स्पर्श प्रचारणा, रूप प्रचारणा, शब्द प्रचारणा और मनःप्रचारणा । भवनवासी, व्यन्तर ज्योतिष्क, तथा सौधर्म और ईशान कल्पों के देव [ मनुष्यों के समान ] शरीर से प्रवीचार अथवा मैथुन करते हैं। सानत्कुमार और माहेन्द्र कल्पों के देव स्पर्श मात्र से ही मैथुन के सुख को भोग लेते हैं । ब्रह्मलोक और लान्तक कल्पों में देव रूप देखने मात्र से मैथुन के सुख को भोग लेते हैं । महाशुक्र और सहस्रार कल्पों में देव मन में स्मरण करने मात्र से मैथुन के सुख को भोग लेते हैं । नौ वेयक तथा अनुत्तरों में उत्पन्न देवों में कामवासना न होने से वह अप्रवीचार कहे जाते हैं। संगति - प्रवीचार, प्रचारणा, तथा प्रचार यह सब मैथुन के ही नामान्तर हैं। इन सत्रों में देवों के मैथुन का सुख प्राप्त करने का ढंग बतलाया गया है । आगमवाक्य तथा उपरोक्त सूत्रों के शब्दों का साम्य ध्यान देने योग्य है। भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः। ४, १०. भवणवई दसविहा पण्णत्ता, तं जहा-असुरकुमारा, नागकुमारा, सुवरणकुमारा, विजुकुमारा, अग्गीकुमारा, दीवकुमारा, उदहिकुमारा, दिसाकुमारा, वाउकुमारा, थणियकुमारा । प्रज्ञापना प्रथम पद देवाधिकार. छाया- भवनवासिनः दशविधाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा- असुरकुमाराः, नाग कुमाराः, सुपर्णकुमारा, विद्युत्कुमाराः अग्निकुमाराः, द्वीपकुमाराः, उदधिकुमाराः, दिक्कुमाराः, वातकुमाराः, स्तनितकुमाराः ।
SR No.022531
Book TitleTattvartha Sutra Jainagam Samanvay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaram Maharaj, Chandrashekhar Shastri
PublisherLala Shadiram Gokulchand Jouhari
Publication Year1934
Total Pages306
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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