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________________ (१३) हुए होनेसे स्वतंत्र स्वामी वेही कहे जा सकते हैं, उनकी उपासनासे आत्मामें पवित्र भावना उठती है, और वह पवित्र भावना कर्ममलको धोकर आत्माको मुक्तिपर पहुंचाती है, इस लिये वें उपासना करने लायक है, उनके निमित्तकारणके विना मिले जीव कदापि मुक्तिको हांसल नहीं कर सकता है, इसलिये ईश्वर परमात्माकी खास आवश्यकता है, परंतु दुनियाके झघडोंमें ईश्वरका हाथ माननेवाले बडी भारी भूल करते हैं, और ईश्वरको इन झघडोंसे जूदा माननेवाले जैनियोंसे द्वेष करते हुए पवित्र परमात्माके स्वरुपको माननेवाले जैनियोंको अनीश्वर वादी आदि विशेषण देकर अनेक जन्मोंमें अज्ञान भावकी वृद्धि ही वृद्धि होती रहे और सत्यमार्गसे दूर ही होते जावे ऐसे पापकर्म उपार्जन करते हैं, अस्तु,-" विचित्रा गतिः कर्मणाम् " यानी कर्मोंकी गति विचित्र है, मिथ्यात्वकी स्थिति जहां तक जोरो शोरसे चल रही है वहां तक ये सच्चे तत्व भी उंटको प्राक्षाकी तरह पसंद नहीं आतें, इन बातोंसे साबित हुआ कि परमात्मामें जगत्का व्यवहार चलाने रुप आधिपत्य नहीं है तो फिर अनेकपरमात्मा होनमें उनको हरकत ही क्या रही ?, नाहकमें एक है एक है ऐसा पूकार करनेसे क्या फायदा ?. श्रावक- भगवन् ! अनेक तीर्थंकर प्रभुओंमें खास एकका ध्यान करनेसे कल्याण हो सकता है या सर्वके ध्यानसे १. सूरीश्वर-महाशय ! चाहे एक परमात्माका अवलंबन ले चाहे विशेषोंका, कल्याण चित्तकी स्थिरता और उनके गुणोंकी अपने में प्राप्तिके होनेसे हैं, जैसे अस्थिरचित्तसे अनेक
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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