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________________ (१२ ) --- तो कसाईद्वारा जो गायें काटी जाती है उस पापकर्मका करानेवाला परमात्मा ठहरे, और कसाई निर्दोष हो जावें, तथा उसकी दुर्गति न होनी चाहिये परंतु ऐसे होता नहीं है. ___एक वैरीने एक शत्रुको काटा उस वख्त मरनेवालेको महावेदना हुई यह अशुमकर्मका दंड है, बतलाईये? यह ईश्वरने दिया या वैरीने दिया ?, अगर ईश्वरने दिया ऐसे माने तो फिर वह मारनेवाला सरकारसे फांसी चढाया जाता है, सो ऐसा न होना चाहिये और ईश्वरको बचा लेना चाहिये, परंतु शत्रुको मारनेवाले शत्रुकी फासी आंखोसे देखी जाती है, बस साबित हुआ कि दुनियाई निमित्तोंसे ही कर्मोदयके समय फल भुगतनेमें आता है, अगर ईश्वर दंड देवें तो फिर कर्म करते ही क्यों न रोके ?, वास्ते ईश्वर इन मामलोमें नहीं पडता, अब बात रही दुर्गतिमें जानेकी सो तो जीव जिस गतिका आयुष्कर्म बांध लेता है वे आयुष्कर्मके पुद्गल और जिस गतिमें जाना है उस गतिके पुद्गलोंमें लोहचुंबक-मकनातीशक और लोहे जैसा संबंध होनेसे उसगतिका आयुष्य पूरा होते ही उस गतिके पुद्गलोंसे जीव लोहेकी तरह खींचाता है, और एकदम ईच्छा हो चाहे न हो उस गतिमें दाखिल होना पडता है, बस, इत्यादि बातोंसे ईश्वरमें जगतका व्यवहार चलानरूप आधिपत्य साबित नहीं हो सकता है, हाँ, परमपवित्र ईश्वरपद भोगनेवाले अतिनिमल अनंज्ञान अनंतदर्शन अनंतसुख अनंतवीर्य आदि गुणके धारक लोकाग्रपदके निवासी होनेसे वे जगत्के पार होनेमें संपूर्ण निमित्त बनते हैं, इससे वे दुनियाके सर्वजीवोंके उपासना करनेलायक होनेसे मालिक हैं, और जन्म मरणके चक्रसे छूटे
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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