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________________ (१०४) वाला मनुष्य हो तो तुरत समज सके कि अरे ! ये लोक क्या गप्पे हांक रहे हैं, देखिये ?, शिवपुराण विद्येश्वर संहिता अध्याय ६ वे में लिखा है कि-एक दिन ब्रह्माजी कृष्णजीके पास गये, सोते हुए कृष्णको कहा, अरे ! क्यों सोता पड़ा है ?, तूं उन्मत्त जैसे दिखता है, में तेरा नाथ आया हूं और तूं आराधना नहीं करता, इससे तूं पायश्चित्तविधिके योग्य है, इस बातको सुन कर कुपित कृष्ण कहता है, वत्स ! आ, इस पीठ पर बैठ, तब ब्रह्माजी बोले, अरे ! कालयोगसे मानमें आ गया है, हे वत्स ! मैं ही तेरा त्राता हूं और जगत्रक्षक भी में ही हूं, विष्णु कहता है मैं हूं, वो कहता है मैं प्रभु और वो कहता है मैं, इस प्रकार 'हूं' 'तू' करते करते लड पडे, एक एकको जानसे मारडालनको भी तत्पर हो गये, आखिर ऐसा युद्ध हुआ कि देवता भी भयभीत होकर शिव चरणके शरणमें गये. __ अब बतलाईये ! क्या ये बातें उनको परमात्मा सावित करती हैं कि पामरात्मा ?, अगर कहा जावे कि ये तो सब कल्पित पुराणोंके गप्पे हैं इससे हमारे धर्ममें क्या हानि ? तो भी भूल है, क्यों कि जिन लोकोंने ऐसे काम करनेवालोंको भी परमात्मा कबूल किया, उन लोकोंने वेद वेदांगादि सब ही ग्रन्थोंको कल्पित ही रच लिया हों तो उसमें संदेह ही क्या है ?, अर्थात् ऐसे लेखकोंकी जहां पर व्याख्या: ओंकी गंध भी हो वहां सत्यतत्त्व लेशमात्र भी नहीं ठहर सकता, वास्ते ब्राह्मणग्रंथोंसे हाथ मुंह धोकर जिन शास्त्रोमें जरा भी ऐसी मनोकल्पनाको स्थान नहीं मिला उन शास्त्रोंसे प्रेमबद्ध होकर आत्मोद्धार कर लेना चाहिये, मगर क्या
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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