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________________ ( ८७ ) दर्शनकी लालसाको ही साबित करता है, इससे कृष्णजीकी पवित्रता (१) साफ तौर पर जाहिर हो रही है. भागवत स्कंध सत्तर वा अध्याय आठवे में भगवान् ने नृसिंहरूप धारके हिरण्यकशिपुको और उसके सहस्र सुभटोंको बुरे हालसे मारा, अपनी जिद्दासे अपने लोहुवाले होठोंको चाट रहें है और रुधिरके लगनेसे मुख लाल लाल हो रहा है, दैत्योंकी आंतोका हार कंठमें पहिने, इत्यादि वर्णन भी विष्णुको जो जरा भी पापसे डरता हो ऐसे सामान्य मनुष्यसे भी नीचे दरजेका साबित करता है, अफसोस है कि इनके ऐसे अधमकर्मको ब्रह्मा शिव और इन्द्र आदि देवताओंने अनुमोदन दीया है, इससे वे लोक भी परमात्मपद तथा देवेश्वरपदके लायक नहीं थे ऐसा साबित होता है, क्या लोहूका चाटना, आंतोका गलेमें डालना, और हजारों दैत्योंका ध्वंस करने रूप यह अधमकार्य किसी तरहसे अनुमोदनीय हो सकता है ?, कहना ही पडेगा कि कदापि नहीं. जिस वख्त नृसिंहने यह काम किया उस वख्त उसको बडा भारी क्रोध चढ़ा हुआ था, जिससे उसके पास ब्रह्मा रुद्र वगैरह देवता भी नहीं जा सके, देखो भागवत सत्तरवा स्कंध अध्याय नोवेंका प्रथम श्लोक " एवं सुरादयः सर्वे, ब्रह्मरुद्रपुरस्सराः । नोपेतुमशकन् मन्युः संरंभं तं दुरासदम् ॥ १ ॥ " इतने जबरदस्त क्रोध करनेवालेमें परमात्मपना है ऐसा माननेवालोंके अंदर विवेकका होना बुद्धिमानोंकी बुद्धि कबूल नहीं करती और ऐसे विवेक शून्य मनसे माने हुए काल्पनिक
SR No.022530
Book TitleMat Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaykamalsuri, Labdhivijay
PublisherMahavir Jain Sabha
Publication Year1921
Total Pages236
LanguageGujarati, Sanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size17 MB
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