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________________ 208 Studies in Umāsvāti अभी तक उपलब्ध नहीं हैं। अन्य उपलब्ध ग्रन्थ बड़े ही लोकप्रिय और बहुविध उपयोगी हैं। सर्वार्थसिद्धि आ० पूज्यपाद की सर्वाधिक लोकप्रिय एवं अपने नाम को सार्थक करने वाली उत्कृष्ट टीका है। तत्त्वार्थसूत्र पर उपलब्ध टीका साहित्य में सर्वार्थसिद्धि (संस्कृत) गद्य में मध्यम परिमाण में लिखित सर्वाधिक प्राचीन प्रथम टीका है, जो कि चार हजार श्लोक प्रमाण है। यह टीका सम्पूर्ण जैन परम्परा में इतनी लोकप्रिय हुई कि इसे मूल ग्रंथ की तरह प्रसिद्धि प्राप्त है। पूज्यपाद ने अन्त्यप्रशस्ति में इसकी प्रशंसा करते हुए लिखा है - स्वर्गापवर्गसुखमाप्तुमनोभिरायः जैनेन्द्रशासनवरामृतसारभूता। सर्वार्थसिद्धिरिति सद्भिरुपात्तनामा, तत्त्वार्थवृत्तिरनिशं मनसा प्रधार्या।। अर्थात् जो आर्य स्वर्ग और मोक्ष के इच्छुक हैं, वे जैनेन्द्रशासन रूपी उत्कृष्ट अमृत में सारभूत और सज्जन पुरुषों द्वारा रखे गये सर्वार्थसिद्धि - इस नाम से प्रख्यात इस तत्त्वार्थवृत्ति को निरन्तर मनःपूर्वक धारण करें। सर्वार्थसिद्धि इस नाम से ही इस ग्रंथ की सार्थकता स्पष्ट है, क्योंकि इसके गहन स्वाध्याय-मनन से सभी प्रकार के अर्थों (मुख्य प्रयोजनों अथवा सर्वश्रेष्ठ प्रयोजन मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। इसका निरन्तर स्वाध्याय करने वाले विद्वानों की यह मान्यता है कि इसका जितनी बार गहनता के साथ स्वाध्याय करें उतने ही नये-नये तत्त्व, उनका गहन चिन्तन दृष्टिगोचर होता है। वस्तुतः उमास्वामी द्वारा मूलग्रंथ तत्त्वार्थसूत्र में जिस प्रमेय का व्याख्यान किया गया है, वह सब पुरुषार्थों में प्रधानभूत मोक्ष पुरुषार्थ का साधक है। जिसका विस्तृत और सटीक विवेचन सर्वार्थसिद्धि में देखने को मिलता है। इसीलिए पूज्यपाद कहते हैं - तत्त्वार्थवृत्तिमुदितां विदितार्थतत्त्वाः शृण्वन्ति ये परिपठन्ति च धर्मभक्त्या। हस्ते कृतं वरमसिद्धि सुखामृतं तैः मामरेश्वरसुखेषु किमस्ति वाच्यम्।। अर्थात् जो मनुष्य धर्मभक्ति से इस तत्त्वार्थवृत्ति को पढ़ते और सुनते हैं, मानो उन्होंने परम सिद्धि सुख रूपी अमृत अपने हाथ में ही कर लिया है। फिर उन्हें चक्रवर्ती और इन्द्र के सुखों के विषय का कहना ही क्या है? सर्वार्थसिद्धि एक दीपस्तम्भ जैसा ग्रंथ सिद्ध हुआ, जिसका अनुकरण परवर्ती प्रायः सभी भाष्यकारों, वार्तिककारों, अन्यान्य ग्रंथकारों, टीकाकारों, यहाँ तक कि
SR No.022529
Book TitleStudies In Umasvati And His Tattvartha Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorG C Tripathi, Ashokkumar Singh
PublisherBhogilal Laherchand Institute of Indology
Publication Year2016
Total Pages300
LanguageEnglish, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_English & Book_Devnagari
File Size23 MB
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