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________________ सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा सिर का मुण्डन करने की, दण्ड धारण करने की और भिक्षा मांगकर भोजन करने की भी क्या आवश्यकता है? पंचरात्र के नियम के अनुसार यम-नियम के अनुष्ठान की भी क्या आवश्यकता है?फिर तो सांख्यदार्शनिकों का निम्नांकित कथन व्यर्थ सिद्ध होता है- 'पंचविंशतितत्त्वज्ञो, यत्र तत्राश्रमे रतः। जटी मुण्डी शिखी वापि, मुच्यते नात्र संशयः।" (सांख्य के 25 तत्त्वों को जानने वाला व्यक्ति, किसी भी आश्रम में रहने वाला हो, जटाधारी हो, अथवा मुण्डन किया हुआ, अथवा शिखा धारण करने वाला हो, वह मुक्त हो जाता है, इसमें कोई संशय नहीं है।) आत्मा को सर्वव्यापक एवं नित्य मानने से विस्मरण का भी अभाव होता है। अतः जातिस्मरण ज्ञान आदि की क्रिया भी नहीं हो सकती। जब पुरुष को नित्य एवं निष्क्रिय स्वीकार किया गया है तो उसमें भोक्ता होने की क्रिया भी संभव नहीं है, क्योंकि वह भी एक क्रिया है। ___ यदि पुरुष की निष्क्रियता का अभिप्राय सांख्यदर्शन में पूर्ण निष्क्रियता नहीं है, किन्तु सक्रियता की अल्पता के कारण उसे निष्क्रिय कहा गया है तो उत्तर में शीलांकाचार्य कहते हैं कि यदि किसी वृक्ष के फल नहीं है तो उससे द्रुम के अभाव की सिद्धि नहीं होती। फलवान होने पर ही किसी वृक्ष को द्रुम कहा जाए, अन्यथा अद्रुम कहा जाए, तो यह उचित नहीं है। सुप्त आदि अवस्था में आत्मा की कथञ्चित् निष्क्रियता हमें भी स्वीकार है, किन्तु इससे आत्मा को निष्क्रिय कहना उचित नहीं है। थोड़े फल वाला होने पर वृक्ष का अभाव सिद्ध करना उचित नहीं है। क्योंकि थोड़े फल वाले पनस आदि वृक्ष भी 'वृक्ष' कहे जाते हैं। इसी प्रकार आत्मा भी स्वल्प क्रिया वाला होने पर भी क्रियावान् ही कहलाता है। यदि सांख्य दार्शनिक यह मानता हो कि जिस प्रकार थोड़े धन वाला धनी नहीं कहलाता, उसी प्रकार थोड़ी क्रिया वाला भी क्रियावान् नहीं कहा जाता, तो ऐसा मानना उचित नहीं है। अल्प धन वाले पुरुष को भी जीर्ण वस्त्र वाले व्यक्ति की अपेक्षा धनी समझा जाता है। आत्मषष्ठवाद मत एवं उसका खण्डन कुछ दार्शनिक पृथ्वी आदि पांच महाभूतों को स्वीकार करने के साथ आत्मा को
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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