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________________ 57 सूत्रकृतांग में परमतानुसारी आत्म-स्वरूप की मीमांसा को स्वीकार करने पर एक के पाप से सभी पापी और एक की मुक्ति से सबकी मुक्ति माननी पड़ेगी, जो उचित नहीं है। वे आगे कहते हैं कि यदि एक ही व्यापक आत्मा है तो घटादि में भी चैतन्य मानना होगा, जो है नहीं। सभी भूतों के अपने-अपने गुण हैं तथा सभी जीवों का अपना-अपना ज्ञान है। अतः आत्माद्वैत का सिद्धान्त सम्यक् नहीं है । " साधुरङ्ग ने दीपिका व्याख्या में कहा है कि यदि एक ही आत्मा व्यापक होकर प्रत्येक शरीर में जलचन्द्रवत् प्रतिभासित होता है तो कुछ सुखी हैं, कुछ दुःखी हैं, कुछ धनिक हैं, कुछ निर्धन हैं, कुछ मूर्ख हैं, कुछ प्राज्ञ हैं इत्यादि व्यवस्था नहीं हो सकेगी।" यदि एक ही आत्मा है तो एक प्राणी के द्वारा अपराध किए जाने पर सभी देव, मानव, तिर्यञ्च एवं नारक समान दुःखरूप फल का अनुभव करेंगे। जबकि ऐसा देखा नहीं जाता है । नारकों को दुःख एवं देवों को सुख का आधिक्य रहता है। 18 ( 3 ) तज्जीव- तच्छरीरवादियों का मत एवं उसका खण्डन व एवं शरीर में भिन्नता नहीं मानना ही तज्जीव- तच्छरीरवाद कहा गया है। इस मत के अनुसार आत्माएँ तो अनेक स्वीकार किए गए हैं, क्योंकि संसार में अज्ञानी जीव भी हैं और पण्डित पुरुष भी । अतः सर्वव्यापी रूप में एक आत्मा स्वीकार करना तज्जीव-तच्छरीरवादी उचित नहीं मानते, किन्तु इनका मानना है कि जब तक शरीर रहता है तब तक ही चैतन्य या आत्मा का अस्तित्व है। मृत्यु होने के पश्चात् आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं रहता । अतः शरीर से भिन्न कोई आत्मा मृत्यु के पश्चात् परलोक में जाकर उत्पन्न नहीं होता है । " इनका कथन है" विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञाऽस्तीति।2° अर्थात् इन पंचभूतों से विज्ञानघन आत्मा उत्पन्न होता है तथा उन्हीं भूतों में विलीन हो जाता है। वह मरकर अन्यत्र कहीं उत्पन्न नहीं होता। 44 पंचभूतवाद के समान तज्जीव- तच्छरीरवाद की मान्यता भी चार्वाकों की प्रतीत होती है। आचार्य शीलांककृत टीका एवं श्री हर्षकुलगणि रचित दीपिका व्याख्या में यह प्रश्न उठाया गया है कि भूतवादियों से तज्जीव- तच्छरीरवादियों में क्या भिन्नता है? इसके उत्तर में कहा गया है कि भूतवादियों के अनुसार पंचभूत काया के आकार में परिणत होकर धावन, चलन आदि क्रिया करते हैं, किन्तु
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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