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________________ 56 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन वेदान्तदर्शन का विकास उपनिषदों के आधार पर हुआ है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में कहा गया है एको देवः सर्वभूतेषुगूढः, सर्वव्यापीसर्वभूतान्तरात्मा। कर्माध्यक्षः सर्वभूताधिवासः, साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च॥" अर्थात् एक देव ही समस्त प्राणियों में छिपा हुआ है। वह सर्वव्यापी है एवं समस्त प्राणियों का अन्तर्यामी परमात्मा है, वह सब कर्मों का अधिष्ठाता तथा समस्त भूतों का निवास है। वह सबका साक्षी चेतन स्वरूप, शुद्ध एवं गुणातीत (सत्त्व, रज एवं तम रहित)है। खण्डन:- सूत्रकृतांग में इसका खण्डन करते हुए कहा गया है कि यह मन्दबुद्धि लोगों का कथन है कि आत्मा एक है। वास्तव में तो आरम्भ आदि पापप्रवृत्ति में संलग्न सभी लोग स्वयं पाप करके अपने-अपने कर्मानुसार तीव्र दुःख को प्राप्त करते हैं।" सब आत्माएँ अस्तित्व की दृष्टि से अलग-अलग हैं, सबका अपना-अपना कर्म होता है, तदनुसार ही जीवों को फल की प्राप्ति होती है। स्वरूपतः आत्मा एक है, इसलिए स्थानांगसूत्र में 'एगे आया' कथन आया है, वह जीव के अकेलेपन को भी घोतित करता है, अतः जैनदर्शन में अस्तित्व की दृष्टि से विचार करें तो सभी जीव अलग-अलग हैं, स्वतन्त्र हैं एवं संख्या में अनन्त हैं। यदि इन जीवों को भिन्न-भिन्न नहीं माना जाएगा तो कर्म-फल की व्यवस्था नहीं बन सकेगी। एक के कृत कर्मों का फल सबको भोगना पड़ेगा। परिवार, समाज आदि का व्यवहार नहीं हो सकेगा। एक का जन्म होने पर सभी का जन्म, एक की मृत्यु होने पर सभी की मृत्यु माननी पड़ेगी। एक के मुक्त होने पर सभी मुक्त हो जायेंगे तथा एक के बंधन को प्राप्त होने पर सभी जीव बंधन को प्राप्त हो जायेंगे। किन्तु सत्य इससे विपरीत है। यहाँ किसी का जन्म होता है तो किसी की मृत्यु। कोई सुखी होता है तो कोई दुःखी। कोई वृद्ध है तो कोई बालक है। कोई मनुष्य है तो कोई पशु। अतः यह मानना चाहिए कि सभी जीवों की स्वतन्त्र सत्ता है एवं सभी अपने कृत कर्मों के अनुसार फल प्राप्त करते हैं। सभी जीवों को अलग-अलग मुक्त होना है। सामाजिक व्यवहार एवं नैतिकता का प्रश्न भी तभी घटित होगा जब सब जीवों की स्वतन्त्र सत्ता स्वीकार की जाएगी। आचार्य शीलांक का कथन है कि एक आत्मा
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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