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________________ जैन आगम-परम्परा एवं निगम-परम्परा में अन्तःसम्बन्ध 485 तन्त्रागमों की देन है। इनका प्रयोग जैन धर्म-दर्शन की मूल भावना के अनुरूप नहीं है। भक्ति तत्त्वःस्तोत्र एवं जप कर्मसिद्धान्त में विश्वास रखने वाली जैन परम्परा में सिद्धों एवं तीर्थकरों की भक्ति तो प्रारम्भ से रही, किन्तु बाद में स्तोत्र रचना को जो गति मिली उसमें वैदिक परम्परा के तत्त्वों का भी समावेश होता गया । जैन स्तोत्र प्राकृत एवं संस्कृत भाषा में रचे गए। समन्तभद्र (पांचवी शती) एवं सिद्धसेनसूरि (पांचवी शती) के द्वारा रचित स्तोत्र प्रारम्भिक संस्कृत स्तोत्र हैं, जिनमें तीर्थङ्करों की स्तुति के साथ अन्य दर्शनों का निरसन भी है, किन्तु बाद में ऐसे भी स्तोत्र रचे गए जिनका लौकिक प्रभाव भी स्वीकार किया गया । मानतुंगाचार्य का भक्तामरस्तोत्र इस कोटि में आता है। नाम जप, माला जप आदि का प्रयोग भी जैन परम्परा में वैदिक प्रभाव के परिणाम हैं। ऐसा नहीं है कि जैन परम्परा में भक्ति का समावेश नहीं था । प्राकृत के 'नमोत्थुणं', 'लोगस्स (चतुर्विंशति स्तव) आदि पाठ भक्ति को स्पष्ट करते हैं, तथापि इसका विशेष प्रयोग वैदिक परम्परा के कारण प्रचलित हुआ। अष्ट द्रव्य पूजा, यज्ञोपवीत आदि का प्रयोग भी वैदिक किं वा हिन्दू संस्कृति का प्रभाव है। उपसंहार ___ इसमें सन्देह नहीं कि निगम और जैनागम दोनों पृथक् धाराएँ हैं, तथापि दोनों में कहीं न कहीं अन्तः सम्बन्ध भी प्रकट होता है। 'ॐ' का प्रयोग, यज्ञ का स्वरूप आदि बिन्दुओं ने जैन-चिन्तकों को प्रभावित किया । एक ऐसा जैन आगम भी है, जिसमें नारद, मंखलिपुत्र, रामपुत्र, अंबड, द्वीपायन आदि विविध परम्पराओं के ऋषियों के वचन प्राकृत भाषा में संकलित हैं, इस आगम का नाम हैइसिभासियाइं। संस्कृत में इसे ऋषिभाषित कहा जाता है। यह आगम निगमों के साथ जैनागमों की निकटता को स्पष्ट करता है। उत्तराध्ययन सदृश आगमों में नैगमिक परम्पराएँ प्रतिध्वनित हुई हैं तो उत्तरवर्ती जैन वाङ्मय में उन परम्पराओं को अपने ढाँचे में आत्मसात् भी किया
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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