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________________ काल का स्वरूप 29 क्रम से स्पर्श करने पर सूक्ष्म भाव पुद्गल परावर्तन कहलाता है । औदारिक पुद्गल परावर्तन का अभिप्राय है संसार की समस्त पुद्गल वर्गणाओं को औदारिक के रूप में परिणत करके छोड़ देने पर उसमें लगने वाला काल । इसी प्रकार वैक्रिय आदि अन्य पुद्गल परावर्तन को समझना चाहिए। औदारिक आदि सात पुद्गल परावर्तनों में सबमें अनन्त काल लगता है, तथापि कार्मण पुद्गल परावर्तन में सबसे कम काल लगता है एवं वैक्रिय पुद्गल परावर्तन में सबसे अधिक । इस प्रकार जैन दर्शन में काल का अत्यन्त सूक्ष्म एवं गम्भीर विवेचन हुआ है । 'समय' की इकाई रूप में प्रतिष्ठा जैनदर्शन की विशिष्ट दृष्टि की परिचायक है, जो आधुनिक विज्ञान में मान्य सैकिण्ड के करोड़वें हिस्से से भी सूक्ष्म है । पल्योपम, सागरोपम एवं पुद्गल परावर्तन आदि की अवधारणा भी जैनदर्शन की काल विषयक अवधारणा की व्यापक दृष्टि का अनुमान कराती है । संख्यात, असंख्यात एवं अनन्त शब्दों का गणितीय प्रयोग भी जैन दार्शनिकों की गणना विषयक मौलिक मेधा को सूचित करता है सन्दर्भः I - 1. (1) सन्मतितर्कप्रकरण 3.52 पर अभयदेवसूरि कृत तत्त्वबोधविधायिनी टीका, गुजरात पुरातत्त्व मंदिर, अहमदाबाद, विक्रम संवत् 1980, पृ. 711 (2) आचारांग पर शीलाङ्क टीका, श्री सिद्ध साहित्य प्रचारक समिति, सूरत, 1935, 1.1.1.3 (3) शास्त्रवार्तासमुच्चय, दिव्यदर्शन ट्रस्ट, बम्बई, स्तबक 2, श्लोक 54, (4) महाभारत, गीताप्रेस, गोरखपुर, चतुर्थ संस्करण, 1988, आदिपर्व, प्रथम अध्याय, श्लोक 248 एवं 250 की प्रथम पंक्तियाँ, 2. (1) अथर्ववेद, हरियाणा साहित्य संस्थान, रोहतक, वि.सं. 2043, काण्ड 19, अध्याय 6, सूक्त 53, मंत्र 10 (2) अर्थर्ववेद, काण्ड 19, अध्याय 6, सूक्त 54, मंत्र 1 3. कालश्च नारायणः । त्रिपादविभूतिमहानारायणोपनिषद्, नारायणोपनिषद्, 2, ईशाद्यष्टोशतोपनिषद्, व्यास प्रकाशन, वाराणसी, 1983, पृ. 312 4. शिवपुराण, मोतीलाल बनारसीदास, बनारस - दिल्ली, 1973, वायुसंहिता ( पूर्व भाग), श्लोक 16
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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