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________________ 28 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन पृथ्वीकाय में रह सकते हैं । इसे असंख्यात उत्सर्पिणी एवं असंख्यात अवसर्पिणी जितना काल माना गया है। पुद्गल परावर्तन अनन्तकाल का द्योतक है । पुद्गल परावर्तन से आशय है संसार के समस्त पुद्गलों को शरीरादि के रूप में ग्रहण कर छोड़ देने का जब एक चक्र पूर्ण हो जाए तो उसे एक पुद्गल परावर्तन कहते हैं। एक पुद्गल परावर्तन में अनन्त अवसर्पिणी एवं उत्सर्पिणी काल व्यतीत होता है । पुद्गल परावर्तन द्रव्य,क्षेत्र,काल एवं भाव के भेद से चार प्रकार का है तथा इन चारों के बादर एवं सूक्ष्म-भेद करने पर यह पुद्गल परावर्तन आठ प्रकार का हो जाता है। आठ प्रकार की पुद्गल वर्गणाएँ निरूपित हैं- (1) औदारिक वर्गणा, (2) वैक्रिय वर्गणा, (3) आहारक वर्गणा, (4) तैजस वर्गणा, (5) भाषा वर्गणा, (6) श्वासोच्छ्वास वर्गणा, (7) मनोवर्गणा और (8) कार्मण वर्गणा। समानजातीय पुद्गल समूह को वर्गणा कहते हैं । इनमें आहारक वर्गणा का पुद्गल परावर्तन सम्भव नहीं है, क्योंकि किसी भी जीव को आहारक शरीर चार बार से अधिक प्राप्त नहीं होता। इसलिए शेष सात वर्गणाओं को आधार बताकर कहा गया है कि जितने काल में एक जीव समस्त लोक में रहने वाले समस्त परमाणुओं को औदारिक शरीर आदि सात वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने काल को बादर द्रव्य पुद्गल परावर्तन कहते हैं और जितने काल में समस्त पुद्गल परमाणुओं को किसी एक वर्गणा रूप से ग्रहण करके छोड़ देता है, उतने परावर्तन काल को सूक्ष्म द्रव्य पुद्गल परावर्तन कहते हैं । यह द्रव्य पुद्गल परावर्तन है। एक जीव अपने मरण के द्वारा लोकाकाश के समस्त प्रदेशों को जब बिना क्रम स्पर्श कर लेता है तो उसे बादर क्षेत्र पुद्गल परावर्तन कहते हैं तथा जब वह क्रम से उनका स्पर्श करता है, तो उसे सूक्ष्म क्षेत्र पुद्गल परावर्तन कहा जाता है । इसी प्रकार उत्सर्पिणी एवं अवसर्पिणी काल के प्रत्येक खण्ड में बिना क्रम से मरण को प्राप्त होने पर बादर काल पुद्गल परावर्तन होता है एवं क्रम से ऐसा करने पर सूक्ष्म काल पुद्गल परावर्तन कहा जाता है । जब जीव समस्त अनुभाग बंध के स्थानों को बिना क्रम के स्पर्श कर लेता है, तो उसे बादर भाव पुद्गल परावर्तन कहते हैं एवं
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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