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________________ 430 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन जीव मुक्त हो जाता है तथा दीर्घ कर्मरोग से मुक्त हुआ प्रशस्त जीव कृतार्थ होकर अत्यन्त सुखी हो जाता है। भगवद्गीता में अत्यन्तसुख की बात नहीं कही गयी किन्तु कामनाओं के त्यागने वाले निःस्पृह, निर्मम एवं निरंहकार साधक को शान्ति प्राप्त करने वाला कहा है, जो सम्भव है अत्यन्त सुख हो। वीतराग और स्थितप्रज्ञःभिन्नता वीतराग एवं स्थितप्रज्ञ में जो भिन्नता है उसके पीछे भगवद्गीता एवं उत्तराध्ययन से जुड़ी पृष्ठभूमि है। उदाहरण के लिए उत्तराध्ययन सूत्र में जहाँ वीतराग को मोहनीय, ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अंतराय का क्षय करने वाला कह कर उसे कर्मक्षय की कसौटी पर परखा गया है, वहाँ स्थितप्रज्ञ के साथ कर्मक्षय का कोई सम्बन्ध स्थापित नहीं किया गया । जैनदर्शन के अनुसार आठ कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय) में सर्वप्रथम मोह का क्षय होते ही साधक वीतराग बन जाता है, तदनन्तर वह ज्ञानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय कर्मों का क्षय करता है। अन्य चार कर्मो का एक साथ आयु कर्म के क्षय होते ही नाश हो जाता है और वीतराग मोक्ष को प्राप्त कर लेता है।" भगवद्गीता में इस प्रकार का विवेचन प्राप्त नहीं होता है। ___ भगवद्गीता में समस्त कमानाओं के त्यागी स्थितप्रज्ञ की स्थिति को ब्राह्मी स्थिति कहा गया है। वह इस स्थिति को प्राप्त कर पुनः मोहित नहीं होता तथा इस स्थिति में स्थित रहकर ब्रह्म निर्वाण को प्राप्त कर लेता है। उत्तराध्ययन सूत्र की शब्दावली में मोक्ष शब्द का प्रयोग हुआ है। निष्कर्ष रूप में यह कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययनसूत्र में प्रतिपादित 'वीतराग' एवं भगवद्गीता में प्रतिपादित 'स्थितप्रज्ञ' की अवधारणा हमें आध्यात्मिक समत्व एवं शान्ति के लिए प्रेरित करती है। दोनों अवधारणाएँ राग-द्वेष पर विजय प्राप्त करने तथा कामनाओं का त्याग करने की प्रेरणा प्रदान करती हैं। इन दोनों में समानता भी है तो कथञ्चिद् भेद भी है। सन्दर्भ:1. नियतं कुरु कर्म त्वं, कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः । - भगवद्गीता, 3.8 2. अप्पाणमेव जुज्झाहि, किं ते जुज्झेण बज्झओ। - उत्तराध्ययनसूत्र, 1.35
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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