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________________ परिग्रह - परिमाणव्रत की प्रासंगिकता आज जहाँ वस्तुओं की सुलभता, धन की प्रचुरता, साधनों की सुविधा आदि को व्यक्ति, समाज एवं राष्ट्र के विकास का मानदण्ड समझा जा रहा है वहाँ परिग्रह-परिणाम व्रत की चर्चा की क्या कोई प्रासंगिकता है, यह विचार का विषय है। परिग्रह-परिमाणव्रत तो बाहूय धन-सम्पदा के स्वामित्व की सीमा बांधता है और यह युग आर्थिक समृद्धि की ओर अग्रसर है। ऐसे में कोई परिग्रह-परिमाण व्रत धारण करता है तो उसे आर्थिक समृद्धि कैसे प्राप्त होगी ? अतः परिग्रह-परिमाण व्रत आर्थिक विकास में बाधक प्रतीत होता है। किन्तु चिन्तन करने पर ज्ञात होता है कि व्रत -ग्रहण और आर्थिक विकास दोनों एक दूसरे के पूरक हैं, सहयोगी हैं। परिग्रह-परिमाणव्रत मानव की आत्मिक शान्ति के साथ समुचित आर्थिक विकास में सहयोगी होता है। परिग्रह का परिमाण मानव को जो अमूल्य निधि प्रदान कर सकता है, वह अर्थ के असीम अभिलाषी को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती । परिग्रह - परिमाण व्रत न केवल व्यक्ति की आत्मिक शान्ति, सन्तोष एवं सुख के लिए आवश्यक है, अपितु समाज के सन्तुलित विकास एवं राष्ट्र की समृद्धि के लिए भी आवश्यक है। यह अर्थशास्त्री केनीज एवं मार्क्स की मान्यताओं से परे मानव को आभ्यन्तर एवं बाह्य दोनों प्रकार की सम्पन्नता प्रदान करता है। आज का युग वैज्ञानिक विकास के साथ आर्थिक विकास का युग है। आज समस्त विकास अर्थकेन्द्रित है। इंजीनियरिंग में जाने वाले छात्र हों या प्रबन्धन में, डॉक्टर बनना हो या वकील, प्रशासनिक अधिकारी बनना हो या उद्योगपति, प्रोफेसर बनना हो या राजनेता, प्रायः सबके केन्द्र में अर्थ है। अर्थ को जीवन-स्तर के सुधार का आधार माना जाता है। देश की निर्धनता दूर हो, प्रतिव्यक्ति आय का अनुपात बढ़े एवं सबके जीवन जीने का स्तर ऊँचा उठे, विकास की इस मंजिल के मूल में आर्थिक समृद्धि या आर्थिक विकास को आधार माना जा रहा है। उद्योग अब लघुस्तर की अपेक्षा बृहत्स्तर पर, राष्ट्रीय स्तर की अपेक्षा अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर विस्तार पाते जा रहे हैं। शिक्षा एवं बौद्धिक क्षमताओं का भी उपयोग अर्थव्यवस्था के विकास में ही किया जाना अपेक्षित समझा जाता है। प्राकृतिक सम्पदा हो या वैज्ञानिक उत्पाद, सबके दोहन और शोषण को व्यापार का हिस्सा बनाया जा रहा
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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