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________________ 334 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन केवल माना हुआ होता है। प्राणी चाहे तो उनमें सम्बन्ध न माने। सम्बन्ध न मानते ही वह अपरिग्रही हो जाता है। अपरिग्रही होने के पश्चात् दुःख से मुक्ति मिल जाती है। संदर्भ:1. (i) मुच्छा परिग्गहो वुत्तो।- दशवैकालिक, 6.20 (ii) मूर्छा परिग्रहः ।-तत्त्वार्थ सूत्र, 7.12 2. परिग्रहबहुत्वेऽपि द्वे प्रतिष्ठे कुलस्य मे। __समुद्रवसना चोर्वी सखी च युवयोरियम्।।-अभिज्ञानशाकुन्तल, 3.17 3. द्रष्टव्य, आचारांग सूत्र, आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर, 1.2.5, सूत्र 124 4. कन्हैयालाल लोढ़ा, दुःखरहित सुख, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर, 2005, पृ. 172 5. आचार्य महाप्रज्ञ, आचारांगभाष्यम्, जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं, 1994, सूत्र, 174, पृ. 150 6. योगी युजीत सततमात्मानं रहसि स्थितः। ____ एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः।।-भगवद्गीता 6.10 7. श्रीमद्भगवद्गीता विपुलभाष्य, हंसा प्रकाशन, जयपुर, सन् 2009, पृ. 165 8. शतायुषः पुत्रपौत्रान् वृणीष्व, बहून् पशून् हस्तिहिरण्यमश्वान्। भूमेर्महदायतनं वृणीष्व, स्वयं च जीव शरदो यावदिच्छसि।।-कठोपनिषद्, 1.1.13 9. कठोपनिषद्, अध्याय 1, वल्ली 1, मंत्र 27 10. दशवैकालिकसूत्र,4.17
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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