SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 33
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ काल का स्वरूप 15 काल को संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग और विभाग-इन पाँच गुणों से युक्त माना गया है । वैशेषिक दर्शन में काल को सभी क्रियाओं का सामान्य कारण माना गया है, ऐसा 'कारणेन काल:"' सूत्र से सिद्ध होता है। काल निमित्त कारण बनता है, समवायी कारण नहीं । न्यायदर्शन में बारह प्रमेय पदार्थों में काल की गणना नहीं की गयी है, किन्तु काल की सत्ता को स्वीकार अवश्य किया गया है। उदाहरणार्थ मन की सिद्धि करते हुए नैयायिक कहते हैं-"युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्।" यहाँ युगपद् शब्द काल का बोधक है । प्रसंगवश एक स्थल पर अक्षपाद गौतम ने दिशा, देश, काल और आकाश की कारणता के सम्बन्ध में काल शब्द का प्रयोग भी किया है। सांख्यदर्शन के 25 तत्त्वों में कहीं भी काल का उल्लेख नहीं आया है, तथापि सांख्यप्रवचनभाष्य के द्वितीय अध्याय में उल्लेख प्राप्त होता है कि दिशा और काल आकाश के ही स्वरूप हैं। ये दोनों आकाश प्रकृति के गुण विशेष हैं। आकाश के विभु होने के कारण दिक् और काल भी विभु हैं । जो दिक्-काल आदि के खण्ड प्राप्त होते हैं वे उपाधि संयोग आदि से आकाश से उत्पन्न माने गये हैं। इस प्रकार सांख्यदर्शन में प्रकारान्तर से काल को अंगीकार किया गया है तथा उसके विभु और खण्ड दोनों स्वरूप स्वीकार किये गए हैं । युक्तिदीपिकाकार ने उपादान का सामर्थ्य होने पर भी काल की अपेक्षा को अंगीकार किया है । सांख्य दर्शन में काल को तृतीय तुष्टि के रूप में भी प्रतिपादित किया गया है। योग दर्शन में व्यासभाष्य के अन्तर्गत काल का विवेचन क्षण एवं क्रम की व्याख्या करते हुए प्राप्त होता है। क्षण को परिभाषित करते हुए व्यास कहते हैं कि एक परमाणु पूर्व स्थान को छोड़कर उत्तर स्थान को जितने समय में प्राप्त होता है वह काल 'क्षण' कहलाता है। इस क्षण के प्रवाह का विच्छेद न होना ही क्रम कहलाता है । क्षण वास्तविक है तथा क्रम का आधार है । क्रम अवास्तविक है, क्योंकि दो क्षण कभी भी साथ नहीं रहते हैं। पहले वाले क्षण के अनन्तर दूसरे क्षण का होना ही क्रम कहलाता है, इसलिए वर्तमान एक क्षण ही वास्तविक है, पूर्वोत्तर क्षण नहीं । मुहूर्त, अहोरात्र आदि जो क्षण-समाहार रूप व्यवहार है, वह बुद्धि कल्पित है, वास्तविक नहीं ।" काल और दिक् को सांख्यदर्शन की भाँति योग
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy