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________________ 14 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन का गान करते हुए कहा है कालः प्रजाअसृजत, कालोअग्रे प्रजापतिम्। स्वयम्भूः कश्यपःकालात्, तपःकालादजायत।। कालादापसमभवन् कालाद्ब्रह्म तपो दिशः। कालेनोदेतिसूर्यः काले निविशते पुनः। काल ने प्रजा (जगत् एवं जीवों) को उत्पन्न किया। स्वयंभू कश्यप भी काल से उत्पन्न हुए तथा तप भी काल से उत्पन्न हुआ। काल से जल-तत्त्व उत्पन्न हुआ। काल से ही ब्रह्मा, तप और दिशाएँ उत्पन्न हुईं। काल से ही सूर्य उदित होता है तथा काल में ही निविष्ट होता है। नारायणोपनिषद् में काल को नारायण',शिवपुराण में काल को ईश्वर' तथा विष्णुपुराण में उसे ब्रह्म का परम प्रधान रूप कहा गया है।' भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं कालोऽस्मि लोकक्षयकृत्प्रवृद्धो, लोकान् समाहर्तुमिह प्रवृत्तः। अर्थात् मैं लोक का क्षय करने वाला प्रवृद्ध काल हूँ तथा इस समय लोकों को नष्ट करने के लिए प्रवृत्त हुआ हूँ। कालवाद का प्रथम उल्लेख श्वेताश्वतरोपनिषद् में प्राप्त होता है-'कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानियोनिः पुरुषइतिचिन्त्या" इसका तात्पर्य है कि काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत, योनि, पुरुष आदि कारण हैं । ज्योतिर्विद्या में काल के आधार पर ही समस्त गणनाएँ की जाती हैं तथा जीवन की भूत-भविष्य की घटनाओं का आकलन काल के आधार पर किया जाता है। बुरे दिनों या अच्छे दिनों का आना आदि जनमान्यता, काल की कारणता को इंगित करती है। कालवाद की मान्यता के अनुसार काल ही सर्वविध कार्यों का कारण है। ___ भारतीय दर्शन-ग्रन्थों में भी काल के स्वरूप एवं उसकी कारणता का प्रतिपादन हुआ है । वैशेषिक दर्शन में काल को एक द्रव्य माना गया है । "पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि'" सूत्र से स्पष्ट है कि काल एक द्रव्य है। काल का अनुमान ज्येष्ठत्व-कनिष्ठत्व, क्रम-योगपद्य, चिर-क्षिप्र आदि प्रत्ययों से होता है। वैशेषिक दर्शन के अनुसार काल नित्य है। संख्या में एक ही है। भूत, भविष्य और वर्तमान में इसे विभक्त किया जा सकता है। प्रशस्तपादभाष्य में
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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