SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 297
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारांग सूत्र में अप्रमत्त जीवन की प्रेरणा 279 और शालिभद्र जैसे राजकुमार एवं सेठ भी प्रव्रज्या के पथ पर चल पड़े। आज व्यक्ति धन से अपने त्राण की आशा करता है, यह उसकी भूल है। धन आत्मगुणों का रक्षक नहीं हो सकता। उसको यहाँ ही छोड़कर जाना होता है। यह सच है कि समय आने पर सबको जाना ही पड़ता है। मृत्यु का आना निश्चित है, उससे कोई नहीं बच सकता। फिर भी प्रमाद के कारण व्यक्ति सावधान नहीं होता। वह संसार से चिपके रहना चाहता है। अपने सुख की पूर्ति न होने पर दूसरों को कोसता है तथा अपने दुःख का कारण दूसरों में ढूंढता है। यह ज्ञानी का प्रमाद है। __ज्ञानी जब प्रमत्त होता है तो वह अपने मान-सम्मान, पूजा-प्रतिष्ठा, प्रशंसा-स्तव आदि के जाल में उलझ जाता है। उसे सबसे प्यारा अपना नाम लगता है। उस नाम के कारण संयम की आराधना निर्दोष नहीं रह पाती। अथवा कहें कि आत्म-शुद्धि एवं आत्मोन्नयन के लक्ष्य से साधक भटक जाता है। उसे आचारांग सूत्र सावधान करता है कि साधक को बाह्य आकर्षणों में न उलझकर आत्म-शोधन के मार्ग को प्राथमिकता देनी चाहिए। प्रमादी व्यक्ति में जब ज्ञान भी होता है तो वह बाहर में अपना आचरण अच्छा रखने का प्रयास करता है, किन्तु भीतर में दोष करता रहता है। वह अकरणीय कार्य करते हुए मन में सोचता है-कोई मुझे देख न ले। यह ऐसी स्थिति है जिसमें साधक भीतर एवं बाहर में एक नहीं होता। वह माया के फंदे में उलझ जाता है। आचारांग सूत्र कहता है कि मायी एवं प्रमादी व्यक्ति जन्म-मरण करता रहता है, वह दुःख की कारा को नहीं काट पाता।" उसमें ईर्ष्या-द्वेष, राग-लोभ आदि की जड़ें सिंचित होती रहती हैं। जो अप्रमत्त होता है वह दुःख की इन जड़ों को काटने हेतु सदैव तत्पर रहता हैं एवं एक दिन इन्हें पूर्णतः दग्ध करने में समर्थ हो जाता है। हिंसा का दोष तभी लगता है जब उसके पीछे प्रमाद की भावभूमि हो। वाचक उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में हिंसा का लक्षण देते हुए कहा है-"प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा"।" अर्थात् प्रमत्तयोगपूर्वक प्राणों की हानि करना हिंसा है। यदि प्रमाद न हो और सावधानी रखते हुए भी किसी प्राणी के प्राण चले जायें तो हिंसा का दोष नहीं लगता है। वह कर्मबंधन का हेतु नहीं होता है। प्रमाद कर्मबंधन का हेतु है। इसलिए सूत्रकृतांग सूत्र में कहा गया है-"पमायकम्ममाहसु'""। केवल
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy