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________________ 278 ... जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन किया गया है वैसा मैं करके दिखाऊँगा- "अकडं करिस्सामि त्ति मण्णमाणे।" उसकी अभिलाषा पूरी होने में यदि अन्य प्राणियों की हिंसा होती है, आर्थिक रूप से दूसरों को हानि होती है, अन्य व्यक्तियों का शोषण होता है अथवा छोटे-छोटे प्राणियों का वध होता है तो भी उसे दया नहीं आती। प्रमाद का यह निकृष्ट रूप है। वह दूसरों के दुःख को देखकर करुणित नहीं होता । देश-विदेश में बड़े-बड़े कत्लखाने इसके साक्षी हैं, जहाँ लाखों पशुओं को बेरहम होकर अपने व्यवसाय के लिए मौत के घाट उतारा जाता है। यह प्रमाद का स्थूल रूप है। प्रमाद का यदि बाहुल्य हो तो व्यक्ति का विवेक पूर्णतः ढक जाता है । वह क्रोध, मान, माया, लोभ की अधिकता वाला होता है। वह विषयपूर्ति के अनेक संकल्पों से युक्त होता है तथा निरन्तर कर्मों का आस्रव करता रहता है। अज्ञान के साथ प्रमाद का अस्तित्व व्यक्ति को सदा मूढ़ बनाये रखता है और वह धर्म के सही स्वरूप से अपरिचित रहता है-"सततं मूढे धम्मंणाभिजाणति।" धर्म के मार्ग पर चलने वाले लोगों को वह सन्मार्गगामी नहीं मानता और स्वयं के असत् मार्ग को सही समझता रहता है एवं दुःखी होता रहता है। ज्ञानी का प्रमाद ___ जानते हुए भी आचरण न करना प्रमाद का दूसरा रूप है । इसे ज्ञान का अनादर भी कहा जा सकता है। प्रमाद का यह रूप ज्ञानी व्यक्ति में पाया जाता है। श्रावक एवं साधु भी इससे ग्रस्त होते हैं। साधक जानता है कि उसमें अमुक दोष है, फिर भी उसे छोड़ने के लिए तत्पर नहीं होता, यह उसका प्रमाद है। यह ज्ञात है कि आसक्ति बुरी है, संसार में फंसाने एवं अटकाने वाली है, फिर भी हम आसक्ति का त्याग न करें तो यह प्रमाद है। यह ज्ञात है कि संसार नश्वर है, शरीर नश्वर है, सब अकेले आए हैं और अकेले जायेंगे, फिर भी उनके प्रति आसक्ति करें तो प्रमाद ही कहा जायेगा। यह ज्ञात है कि संसार में सभी प्राणी सुख चाहते हैं, कोई भी दुःख नहीं चाहता। फिर भी हम दूसरों को दुःखी करने का प्रयत्न करें तो यह हमारा प्रमाद ही है। कोई यह समझे कि धन मनुष्य को त्राण देने वाला है, तो यह उसकी भूल है। प्रमादी व्यक्ति को सावधान करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र कहता है-“वित्तेण ताणंन लभे पमत्ते।" धन से भी कोई पूर्णतः रक्षित नहीं होता। इसीलिए मेघकुमार
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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