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________________ 232 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन आगम-वाक्यों का अर्थ समझने की दृष्टि से होता रहा है। आगमों में तीर्थंकरों, गणधरों एवं आचार्यों के द्वारा जो सूत्र या वाक्य कहे गये हैं वे किसी न किसी नय से कहे गये हैं। अतः उन वाक्यों का उसी दृष्टिकोण से अर्थ समझने पर वस्तु तत्त्व का बोध होता है। इस दृष्टि से नय की अवधारणा जैन दर्शन का मौलिक सिद्धान्त नय सिद्धान्त के विकास का आधार __नय सिद्धान्त का विकास कैसे हुआ, यह जानना आवश्यक है। मानव की जानने एवं कथन करने की शक्ति सीमित है । अतः वह किसी विशेष दृष्टिकोण से ही जानता है तथा कथन करता है । सर्वज्ञ केवलज्ञान से सम्पूर्ण रूप से समस्त वस्तुओं का ज्ञान भले ही कर लें, किन्तु कथन वे भी अपेक्षा विशेष से करते हैं । इसीलिए जैनागमों में कथन करते समय विभिन्न अपेक्षाओं या दृष्टिकोणों का प्रयोग किया गया है । व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में प्रभु महावीर से प्रश्न किया गया कि लोक सान्त है या अनन्त? उन्होंने चार अपेक्षाओं से इस कथन का उत्तर देते हुए कहा है कि द्रव्य की दृष्टि से लोक सान्त है, क्योंकि द्रव्य से वह एक है। वह क्षेत्र की दृष्टि से भी सान्त है, क्योंकि वह असंख्यात योजन कोटाकोटि विस्तार वाला है। काल एवं भाव की दृष्टि से वह अनन्त है। काल से वह पहले भी था, अब भी है एवं भविष्य में भी रहेगा, वह ध्रुव, नित्य, शाश्वत, अक्षय एवं अवस्थित है, उसका अन्त नहीं है। भाव अर्थात् उसकी पर्याय या अवस्था विशेष अनन्त है, अतः लोक अनन्त है। यह एक दृष्टि है कथन करने की एवं वस्तुओं को ठीक से समझने एवं समझाने की। साधारण व्यक्ति इस प्रश्न का उत्तर हाँ या नहीं में देने की कोशिश करता है, वह या तो उसे अन्तयुक्त बताता है या अन्तहीन। किन्तु यह नय सिद्धान्त का प्रभाव है कि सान्तता एवं अनन्तता का ठीक-ठीक कथन किया जा सका। इसी प्रकार जयन्ती श्राविका द्वारा प्रश्न किया गया कि मनुष्य का सोना अच्छा है या जागना ? प्रभु महावीर ने उत्तर दिया कि जो व्यक्ति पापी है, अधर्मिष्ठ है, असत् आचरण करता है उसका सोना अच्छा है तथा जो सदाचारी है, धर्मिष्ठ है उसका जागना अच्छा है। इस प्रकार के अनेक प्रश्नों के उत्तर हम अपेक्षा विशेष को समझने की दृष्टि से देते हैं। एक अन्य प्रश्न किया गया कि जीव शाश्वत है या
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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