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________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन नहीं है । द्रव्य की अपेक्षा से यदि गृहीतग्राहिता का निषेध किया जाए तो भी उचित नहीं है, क्योंकि द्रव्य तो नित्य होता है, उसकी गृहीतग्राही एवं ग्रहीष्यमाण ग्राही अवस्थाओं में कोई अन्तर नहीं होता । अतः गृहीतग्राही ज्ञान भी ग्रहीष्यमाण ग्राही की भांति प्रमाण ही है।' किसी वस्तु को एक बार जान लेने पर पुनः जानना गृहीतग्राही ज्ञान होता है तथा भविष्य में किसी वस्तु के होने वाले ज्ञान को ग्रहीष्यमाण ग्राही कहते हैं। ग्रहीष्यमाण का यदि वर्तमान में ज्ञान किया जाए तो वह जिस प्रकार प्रमाण कहलाता है, उसी प्रकार गृहीतग्राही ज्ञान भी प्रमाण ही होता है । 190 भट्ट अकलंक ने बौद्धप्रभाव से प्रमाण को अविसंवादक - ज्ञान भी कहा है, किन्तु वे प्रमाण की अविसंवादकता को निश्चयात्मकता में ही पर्यवसित करते हैं। " प्रश्न यह होता है कि जैनदर्शन में जब प्रमाण को ज्ञान-रूप में निरूपित किया गया है, तो ज्ञान एवं प्रमाण में कोई अन्तर है या नहीं ? जैन दार्शनिक इसका समाधान करते हुए कहते हैं कि ज्ञान संशयात्मक एवं विपर्ययात्मक भी हो सकता है, किन्तु प्रमाण संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित होता है। संशय से आशय सन्देहात्मक ज्ञान से है । विपर्यय विपरीत या भ्रान्त ज्ञान को कहते हैं तथा अनध्यवसाय अवग्रह से पूर्व का आलोचन मात्र अनिश्चयात्मक ज्ञान है। संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय से रहित ज्ञान को जैन दार्शनिकों ने सम्यग्ज्ञान भी कहा है। इस अर्थ में सम्यग्ज्ञान ही प्रमाण है। यहाँ सम्यग्ज्ञान से आशय आगम में वर्णित उस ज्ञान से नहीं है- जो चतुर्थ गुणस्थानवर्ती या उसके पश्चात्वर्ती - जीव को सम्यग्दर्शन पूर्वक होता है । तार्किक युग में जैन दार्शनिकों ने सम्यग्दर्शन को आधार नहीं बनाकर व्यावहारिक दृष्टि से संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय रहित ज्ञान को प्रमाण कहा है। संक्षेप में प्रमाण की निम्नांकित विशेषताएँ कही जा सकती हैं 1. प्रमाण के द्वारा प्रमेय पदार्थ को जाना जाता है 2. प्रमाण ज्ञानात्मक होता है, अर्थात् ज्ञान को ही प्रमाण कहा गया है। 3. ऐसे ज्ञान को प्रमाण कहा गया है जो वस्तु का एवं स्वयं का निश्चायक हो । संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय ( अनिश्चय) से रहित हो। 4. निर्विकल्पक ज्ञान प्रमाण नहीं होता। जैनदर्शन में प्रतिपादित ज्ञान के पूर्ववर्ती
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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