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________________ सम्यग्दर्शन 177 नहीं होने के कारण उसमें निष्कांक्षता का आविर्भाव होता है। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति में निर्विचिकित्सा गुण भी सम्प्राप्त होता है। वह उत्पन्न परिस्थिति हेतु चिकित्सा या परिवर्तन की अभिलाषा न रखकर समभाव की साधना करता है। उसकी दृष्टि में मूढ़ता या अज्ञान नहीं रहता। पं. आशाधर ने अनगार धर्मामृत में मूढ़ता के तीन प्रकार बताये हैं- देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता। अरिहन्त एवं सिद्ध के अतिरिक्त किसी अन्य राग-द्वेष युक्त को देव मानना देवमूढ़ता है। लोक प्रवाह और लोक रूढ़ियों का अन्धानुकरण लोकमूढ़ता है। सिद्धान्त और शास्त्र के सम्बन्ध में ज्ञान का अभाव समयमूढ़ता है। सम्यग्दर्शनी इन तीनों मूढ़ताओं से रहित होने के कारण अमूढदृष्टि कहा गया है। सम्यक् आचरण से युक्त साधकों की प्रशंसा करना और उन्हें इस दिशा में आगे बढ़ाना उपबृंहण है। मूलाचार एवं चारित्र पाहुड में उपबृंहण के स्थान पर उपगूहन शब्द का प्रयोग हुआ है। जिसका तात्पर्य है दूसरे के दोषों को प्रकट न करना। स्वयं सदाचरण से शिथिल हो जाए अथवा धर्ममार्ग से कोई पतित हो जाए तो स्वयं को एवं उसे धर्ममार्ग पर आरूढ़ करना स्थिरीकरण है। धार्मिकजनों के प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार वात्सल्य है। ज्ञानी पुरुषों के प्रति अत्यन्त बहुमान एवं प्रीति रखना उनके प्रति हर्षित होना भी वात्सल्य गुण का द्योतक है। धर्म तीर्थ धर्म के सही स्वरूप को स्थापित करना, प्रचारित करना प्रभावना है। स्वयं के आचरण से एवं विचारों से यह प्रभावना सम्भव होती है। सम्यक्त्वएवंसाम्प्रदायिकता देव, गुरु एवं तत्त्व का निरूपण प्रत्येक धर्म-दर्शन में भिन्न-भिन्न रहा है। इसलिए देव, गुरु एवं धर्म पर श्रद्धान करने का स्थूल तात्पर्य है उस धर्म का अनुयायी होना। जब भी एक धर्म से दूसरे धर्म में धर्मान्तरण किया जाता है या धर्म में दीक्षित किया जाता है तो देव, गुरु एवं धर्म का स्वरूप समझाकर सम्यक्त्व ग्रहण कराई जाती है। उदाहरणतः बौद्धधर्म में बुद्ध, धर्म एवं संघ की शरण में जाने का उल्लेख हुआ है, इसी प्रकार जैनधर्म में 'अरिहंते सरणं पवज्जामि, सिद्धे सरणं पवज्जामि, साहू सरणं पवज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पवज्जामि।" पाठानुसार अरिहंत, सिद्ध, साधु एवं केवलिप्रज्ञप्त धर्म की शरण को ग्रहण करने का कथन है। इनकी शरण में जाना तभी संभव है जब इन पर श्रद्धा हो। श्रद्धा के बिना
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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