SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 194
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन सम्मादिट्ठी, तं सव्वं णिज्जरणिमित्तं " ( समयसार, गाथा 193 ) सम्यग्दृष्टि जो कुछ करता है, वह सब कर्म की निर्जरा के लिए करता है। कर्म की सकाम निर्जरा तभी सम्भव है जब पाप की प्रवृत्ति पूर्वापेक्षया कम होती जाए। दूसरा समत्वदर्शी अर्थ भी उपयुक्त है, क्योंकि समत्वदर्शी वही व्यक्ति होता है जो वीतरागता का पथिक हो अथवा यों कहें कि वीतरागता की साधना के लिए समत्वभावपूर्वक द्रष्टा बनना आवश्यक है। जो समभावपूर्वक द्रष्टा होता है, वह राग-द्वेष आदि पापों पर विजय सहज ही प्राप्त करने में सक्षम होता है। सम्यग्दृष्टि व्यक्ति समभाव के मार्ग पर सही रीति से चल सकता है, अतः सम्यग्दर्शन समत्वभाव में भी सहायक है। 176 सम्यग्दर्शन से दृष्टि की निर्मलता होती है । दृष्टि की निर्मलता में संकीर्ण स्वार्थ नहीं रहता और न ही अपना एवं दूसरों का अहित करने की बुद्धि होती है। निर्मलदृष्टि मनुष्य सत्-असत् को जानता है एवं उसे वैसा स्वीकार भी करता है। उसका जीवन स्व-पर कल्याण की ओर केन्द्रित होता है । वह पौद्गलिक वस्तुओं की प्राप्ति में ही जीवन की पूर्णता नहीं मानता। उसे इनकी क्षणभंगुरता एवं विनश्वरता का बोध रहता है । जीवन के प्रति उसका दृष्टिकोण साफ होता है । अनुकूलता एवं प्रतिकूलता में वह सम रहता है। भोगों से उसका आकर्षण छूट जाता है। अज्ञानियों एवं तज्जन्य दुःखों से ग्रस्त जनों पर उसके हृदय में अनुकम्पा होती है। अपने पर उसका विश्वास होता है, जिसे आत्मविश्वास तथा आत्मश्रद्धान कह सकते हैं। सम्यग्दर्शन के आठ अंग सम्यग्दर्शन के आठ आचार या अंगों का उल्लेख भगवती सूत्र ( शतक 1, उद्दे. 3), उत्तराध्ययन सूत्र (28.31 ), चारित्र पाहुड ( गाथा 7 ) आदि ग्रन्थों में प्राप्त होता है। आठ अंग या आचार हैं- 1. निःशंकित, 2. निष्कांक्षित, 3. निर्विचिकित्सा, 4. अमूढदृष्टि, 5. उपबृंहण, 6. स्थिरीकरण, 7. वात्सल्य, 8. प्रभावना। सम्यग्दर्शन की साधना करने पर तथा सम्यक्त्व की प्राप्ति पर ये सभी अंग विकसित होते हैं। ऐसे व्यक्ति को जिनेन्द्रों के द्वारा प्ररूपित वचनों पर किसी प्रकार की शंका नहीं रहती तथा सत्-असत्, आत्म-अनात्म के विवेक में भी वह शंकारहित होता है, अतः वह निःशंकित कहा गया है। भौतिक या ऐन्द्रियक सुख के प्रति कांक्षा या अभिलाषा
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy