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________________ अर्द्धमागधी आगम-साहित्य में अस्तिकाय 'अस्तिकाय' जैन दर्शन का विशिष्ट पारिभाषिक शब्द है, जो लोक या ब्रह्माण्ड के स्वरूप का निर्धारण करता है। अस्तिकाय का निरूपण एवं विवेचन शौरसेनी, अर्द्धमागधी एवं संस्कृत भाषा में रचित आगम-ग्रंथों, सूत्रों, टीकाओं एवं प्रकरण ग्रंथों में विस्तार से समुपलब्ध है, किन्तु प्रस्तुत लेख में अर्द्धमागधी आगमों में निरूपित पंचास्तिकाय पर विचार करना ही समभिप्रेत है। अर्द्धमागधी भाषा में निबद्ध आगम श्वेताम्बर परम्परा का प्रतिनिधित्व करते हैं। दिगम्बर परम्परा इन्हें मान्य नहीं करती। उसमें मान्य षखण्डागम, कसायपाहुड, समयसार, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय आदि (आगम) ग्रंथ शौरसेनी प्राकृत भाषा में निबद्ध हैं। अर्द्धमागधी आगमों में मुख्यतः व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र, प्रज्ञापनासूत्र, जीवाजीवाभिगमसूत्र, समवायांग, स्थानांग, उत्तराध्ययन आदि में पंचास्तिकाय एवं षड् द्रव्यों का निरूपण सम्प्राप्त होता है। इसिभासियाइं ग्रंथ भी इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।' अस्तिकाय पाँच हैं -1.धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 4. जीवास्तिकाय और 5. पुद्गलास्तिकाय। द्रव्य को छह प्रकार का प्रतिपादित करते समय अद्धासमय (काल) को भी पंचास्तिकाय के साथ जोड़कर निरूपित किया जाता है। अस्तिकाय एवं द्रव्य दो भिन्न शब्द हैं, अतः इनके अर्थ में भी कुछ भेद होना चाहिये। अस्तिकाय द्रव्य हैं, किन्तु द्रव्यमात्र अस्तिकाय नहीं है। 'अस्तिकाय' (अत्थिकाय) शब्द का विवेचन करते हुए आगम टीकाकार अभयदेवसूरि कहते हैं- 'अस्ति' इत्ययं त्रिकालवचनो निपातः, अभूवन् भवन्ति भविष्यन्ति चेति भावना। अतोऽस्ति च ते प्रदेशानां कायाश्च राशय इति - अस्तिकायाः। 'अस्ति' शब्द त्रिकाल का वाचक निपात है, अर्थात् 'अस्ति' से भूतकाल, वर्तमान एवं भविष्यत् तीनों में रहने वाले पदार्थों का ग्रहण हो जाता है। 'काय' शब्द ‘राशि' या समूह का वाचक है। जो काय अर्थात् राशि तीनों कालों में रहे, वह अस्तिकाय है। अस्तिकाय की एक अन्य व्युत्पत्ति में अस्ति का अर्थ प्रदेश
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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