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________________ 160 जैन धर्म-दर्शन : एक अनुशीलन का महत्त्व समझकर जो इसका उपयोग करता है वह जीव आत्म-विकास करने में समर्थ होता है। विशेषावश्यकभाष्य में श्रुतज्ञान को आत्मा कहा गया है- सुयं तु परमत्थओ जीवो। तीर्थंकरों के मत में श्रुतज्ञान आत्मा का लक्षण है, जैसा कि मल्लवादी हेमचन्द्र बृहद्वृत्ति में कहते हैं- आत्मनः परिणामश्च श्रुतज्ञानमिष्यते तीर्थकरादिभिः । आत्मा के परिणाम को श्रुतज्ञान कहा जाता है। बृहत्कल्पभाष्य में भी श्रुतज्ञान को नियमतः जीव कहा गया है। वहां कहा गया है कि या तो जीव श्रुतज्ञानी होता है या श्रुतअज्ञानी होता है अथवा केवलज्ञानी होता है। श्रुतज्ञान के कारण अकेवली भी केवली के समान होता है । केवली तीन प्रकार का कहा गया है- 1. श्रुतकेवली 2. अवधिकेवली तथा 3. केवलकेवली। श्रुतज्ञान को तृतीय नेत्र के रूप में प्रतिपादित करते हुए गुरु ने शिष्य से कहाशिष्य! "तुम श्रुत के अग्रहण का दुराग्रह मत करो । श्रुत सूक्ष्म, व्यवहित आदि अतीन्द्रिय पदार्थों के ज्ञान के लिए तृतीय चक्षु के समान है। तुम उसका अनुशीलन करो।" श्रुतज्ञान के लिए मनुष्य को जाग्रत एवं अप्रमत्त रहने की आवश्यकता है। कहा गया है जागरहनरा!णिच्चं, जागरमाणस्सवड्ढते बुद्धी । सुवतिसुवंतस्ससुतं, संकितंखलियंभवेपमत्तस्स। जागरमाणस्ससुतं,थिरंपरिचितमप्पमत्तस्स। ___- बृहत्कल्पभाष्य,3382 एवं 3384 हे मनुष्यों! सदा जागृत रहो । जो जागता है अर्थात् अप्रमत्त रहता है, उसकी बुद्धि बढ़ती है। सोने वाले का श्रुत सो जाता है। जो प्रमत्त होता है उसके ज्ञान में शंका या स्खलना उत्पन्न हो जाती है। जो जागृत रहता है, अप्रमत्त है, उसका श्रुत स्थिर तथा परिचित हो जाता है। निष्कर्षः1. श्रुतज्ञान प्रत्येक जीव का एक आवश्यक लक्षण है। सम्यग्दर्शन की उपस्थिति में यह सम्यक् श्रुतज्ञान कहलाता है तथा मिथ्यादर्शन की उपस्थिति में श्रुत अज्ञान कहलाता है।
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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