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________________ श्रुतज्ञान का स्वरूप प्रायः आगमज्ञान को श्रुतज्ञान कहा जाता है, किन्तु श्रुतज्ञान का यह लक्षण अपूर्ण प्रतीत होता है, क्योंकि जिन जीवों को आगम ज्ञान नहीं होता है, उनमें भी मतिज्ञान के साथ श्रुतज्ञान आवश्यक रूप से स्वीकार किया गया है। हाँ, वह श्रुतज्ञान सम्यग्दर्शन के अभाव में एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय तक के जीवों में श्रुतअज्ञान कहा जाता है। किन्तु जिन पंचेन्द्रिय जीवों में सम्यग्दर्शन होता है उनमें ही श्रुतज्ञान पाया जाता है। श्रुतज्ञान लब्ध्यक्षर के रूप में प्रत्येक जीव में नित्य उद्घाटित रहता है। इसका कभी पूर्णतः समापन नहीं होता है। विशेषावश्यकभाष्य में इसे भावश्रुत भी कहा गया है। यह भावश्रुत रूप या लब्ध्यक्षर रूप श्रुतज्ञान (या श्रुत अज्ञान) सभी जीवों में होता है। इस श्रुतज्ञान का उपयोग मतिज्ञान के पश्चात् होता है, अतः इसे मतिपूर्वक कहा गया है। यह श्रुतज्ञान त्रैकालिक होता है तथा केवलज्ञान की उत्पत्ति में सहायक होता है। मुक्ति के उपायों में जो सम्यग्ज्ञान परिगणित है, वह मुख्यतः श्रुतज्ञान का ही द्योतक है, क्योंकि आत्महित बोधक ज्ञान है। इसकी समानता केवलज्ञान के साथ करते हुए कहा जाता है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष है तथा श्रुतज्ञान परोक्ष है। श्रुतज्ञान एक महत्त्वपूर्ण ज्ञान है, क्योंकि यह दुःख से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करता है। इसकी तुलना शुद्ध परिपूर्ण केवलज्ञान से की जाती है। दोनों में अन्तर इतना ही है कि केवलज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान है और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान है। कुन्दकुन्दाचार्य ने समयसार एवं प्रवचनसार में इसके महत्त्व का प्रतिपादन करते हुए कहा है कि जो शुद्ध आत्मस्वरूप को श्रुतज्ञान के द्वारा जानता है, उसे लोक को प्रकाशित करने वाले ऋषियों ने श्रुतकेवली कहा है।' केवली भगवान समस्त द्रव्यों और उनकी पर्यायों को केवलज्ञान से साक्षात् जानते हैं, जबकि श्रुतज्ञानी उन्हें परोक्ष रूप में जानते हैं । कुन्दकुन्द कहते हैं कि जो आत्मस्वरूप को जानता है वह श्रुतकेवली है। इस तरह आत्म-विकास में श्रुत की महत्त्वपूर्ण भूमिका है। श्रुत क्या है? इस पर विचार किया जाता है तो प्रायः आगमों को श्रुत कहा जाता है। ये आगम केवलियों की अर्थरूप वाणी हैं, किन्तु गणधरों एवं आचार्यों के द्वारा शब्द रूप में ग्रथित वाणी को भी श्रुत कहा जाता है । शब्द रूप आगम अर्थस्वरूप आगम को
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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