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________________ कर्म - साहित्य में तीर्थङ्कर प्रकृति तिरियभवे तं निसेहियं संतं । इयरंमि नत्थि दोसो उवट्टणवट्टणासज्झे । - पंचसंग्रह 5.44 विशेषणवती में जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने भी कहा है- तं पि सुनिकाइस्सेव तइय भवभाविणो विणिछिट्ठ। अणिकाइयम्मि वच्चइ सव्वगईओ वि न विरोहो । - उद्धृत, पंचसंग्रह, भाग 5 पृ. 175 22. आठवें गुणस्थान का जीव अन्तर्मुहूर्त में ही केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है और तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध आठवें गुणस्थान के छठे भाग तक मान्य है। 23. तीर्थंकर प्रकृति का उत्कृष्ट बंध निरूपित करने के प्रसंग में यह बात स्पष्ट होती हैतित्थयरनामस्स उक्कोसठिइं मणुस्सो असंजओ वेयगसम्मद्दिट्ठी पुव्वं नरगबद्धाउगो नरगाभिमुहो मिच्छत्तं पडिवज्जिही । - पंचसंग्रह, प्रथमभाग, मलयगिरि टीका, उद्धृत, पंचम कर्मग्रन्थ, (ब्यावर), पृ. 162 24. (अ) पंचम कर्मग्रन्थ, गाथा 42 (आ) तित्थयरनामस्स उक्कोसठिइं मणुस्सो असंजओ वेयगसम्मद्दिट्ठी पुव्वं नरगबद्धाउगो नरगाभिहो मिच्छत्तं पडिवज्जिही इति अंतिमे ठिईबंधे वट्टमाणो बंधइ, तब्बंधगेसु अइसंकिलिट्ठो त्ति काउं। - पंचसंग्रह, प्रथमभाग, मलयगिरि टीका 25. तित्थरबंधस्स णिरय - तिरिक्खगइबंधेहि सह विरोहादो । - धवला 8.3,38.74.5 26. कप्पित्थीसु ण तित्थं । - गोम्मटसार 'कर्मकाण्ड', गाथा 112 27. पारद्धतित्थयरबंधभवादो तदियभवे तित्थयरसंतकम्मियजीवाणं । मोक्खगमणणियमादो। - धवला 8.3, 38.74.8, 38.75.1 28. ( अ ) विशेषणवती, जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण, गाथा 78 (आ) बज्झई तं तु भगवओ तइयभवोसक्कइत्ताणं । - आवश्यकनिर्युक्ति 183 29. द्रष्टव्य - महाबन्ध, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, प्रथम भाग, कालप्ररूपणा - पृ. 63 30. कालमासे कालं किच्चा तच्चाए बालुयप्पभाए पुढवीरए उज्जलिए नरए नेरइयत्ताये उववज्जिहिसि । --- आगमेसाए उस्सप्पिणीए - - - -बारसमे अममे णामं अरहा भविस्ससि । - अंतगडदसासूत्र, वर्ग 5 ( उज्ज्वल नरक में नील लेश्या ही है) 151 31. महाबन्ध, प्रथम भाग, पृ. 177 32. स्त्रीषण्ढवेदयोरपि तीर्थाहारकबन्धो न विरुध्यते उदयस्यैव पुंवेदिषु नियमात् । - गोम्मटसार 'कर्मकाण्ड', जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका, गाथा - 119 33. आगम में इसे एक आश्चर्य माना गया है । द्रष्टव्य स्थानाड्ङ्गसूत्र, स्थान 10 34. द्रष्टव्य, दूसरा कर्मग्रन्थ, सत्ता- विचार । 35. द्रष्टव्य, उपर्युक्त 21 वाँ टिप्पण। 36. पंचम कर्मग्रन्थ, गाथा 33 -
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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