SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्तवाद का स्वरूप और उसके तार्किक आधार 127 कोई अनैकान्तिक हेत्वाभास नहीं है। यह वस्तु के स्वरूप का नियामक सिद्धान्त है। यह वस्तु में रही नित्यता एवं अनित्यता दोनों को द्रव्यार्थिक एवं पर्यायार्थिक नयों से स्पष्ट करता है। इसके अनुसार प्रमेयमात्र नित्यानित्य है। इसे समझने के लिए केवलान्वयी हेतु का प्रयोग किया जा सकता है, जिसमें विपक्ष होता ही नहीं है। वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता एवं त्रयात्मकता यहाँ ध्यातव्य है कि जैन दार्शनिकों ने वस्तु में अनेकधर्मात्मकता ही नहीं अनन्तधर्मात्मकता भी स्वीकार की है। हेमचन्द्राचार्य अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका में कहते हैं _अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम्। मल्लिषेणसूरि ने वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता त्रिकालविषयत्व के कारण स्वीकार की है-"अनन्तास्त्रिकालविषयत्वाद् अपरिमिता ये धर्माः सहभाविनः क्रमभाविनश्च पर्यायाः। त एवात्मा स्वरूपं यस्य तदनन्तधर्मात्मकम् अर्थात् त्रिकाल को विषय करने के कारण सहभावी धर्म और क्रमभावी पर्याय वाली वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। आप्तमीमांसा में समन्तभद्र ने 'घटमौलिसुवर्णार्थी' एवं 'पयोव्रतो न दध्यत्ति' कारिकाओं के माध्यम से वस्तु को त्रयात्मक कहा(तस्मात् तत्त्वं त्रयात्मकम्) तो प्रश्न उठा कि वस्तु के त्रयात्मक होने पर उसमें अनन्तात्मकता कैसे सिद्ध होगी? इस प्रश्न का उत्तर आचार्य विद्यानन्द ने इन कारिकाओं पर टीका करते हुए अष्टसहनी में पररूप से व्यावृत्ति के आधार पर दिया है। वे कहते हैं-परपदार्थों के स्वरूप से व्यावृत्ति भी वस्तु का स्वभाव है। परपदार्थ अनन्त हैं, अतः वस्तु का स्वभाव अनन्तधर्मात्मक सिद्ध है-"न चैवमनन्तात्मकत्वं वस्तुनो विरुध्यते, प्रत्येकमुत्पादादीनामनन्तेभ्य उत्पद्यमानविनश्यत्तिष्ठद्भ्यः कालत्रयापेक्षेभ्योऽर्थेभ्यो भिद्यमानानां विवक्षितवस्तुनि तत्त्वतोऽनन्तभेदोपपत्तेः पररूपव्यावृत्तीनामपि वस्तुस्वभावसाधनात्, तदवस्तुस्वभावत्वे सकलार्थसाङ्कर्यप्रसङ्गात्" अर्थात् वस्तु के अनन्तधर्मात्मक होने में कोई विरोध नहीं आता। प्रत्येक वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य के कारण उत्पन्न होती हुई, विनाश को प्राप्त होती हुई एवं ध्रुव रहती हुई कालत्रय की अपेक्षा से भिन्न-भिन्न है, अतः विवक्षित वस्तु में परमार्थतः
SR No.022522
Book TitleJain Dharm Darshan Ek Anushilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2015
Total Pages508
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy