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________________ श्री तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् देवता और नारकी उपपात जन्म वाले है, असंख्यात वर्ष के आयुष्य व ले मनुष्य और तियच देवकुरु, उत्तरकुरु, अन्तरद्वीप वगेरा अकर्म भूमी में और कर्म भूमी में अवसर्पिणी के प.ले तीन आरों में और उत्सर्पिणी के भाखरी तीन आरों में (पैदा होते हैं। असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले तियच अढ़ी द्वीप में और बाहर के द्वीप समुद्र में उपजते हैं, उपपात जन्म और असंख्याता वर्ष के मायुष्य वाले निरुपक्रमी हैं। इन चरम देह वालों को उपक्रम लगता हैं लेकिन उनका आयुष्य घटना नहीं. बाकी के यानी औपपातिक, असंख्य वर्ष वाले, उत्तम पुरुष, और चरम देह वाले सिवाय के तिर्यंच और मनुष्य सोपक्रमी और निरुपक्रमी हैं। जो अपवर्तन आयुष्य वाले है उनका आयुष्य विष, शस्त्र, अरिन, कंटक, जल, शूली, वगेरा से घटता है। अपवर्तन होता है यानी थोड़े काल में यहाँ तक की अन्तर मुहूर्त काल में कर्मफल का अनुभव होता है । उपक्रम सो अपवर्तन का निमित्त कारण है। जिस तरह जुदे जुदे घास के तरणे एक एक करके जलाने में ज्यादा वक्त लगता है इखल कर जलाने से फोरन जल जाते हैं या भींजा हुवा कपड़ा इकट्ठा रखने से बहुत देर से सूखता हैं और चौड़ा करे तो फोरन सूख जावे उसी तरह बहोत वक्त में आयुष्य भोगने का था वह क्षण वार में भोगकर पूरा करते हैं लेकिन भोगने का बाकी नहीं रहता। अनपवर्तनीय १ सोपक्रमी-२ निरुपक्रमी अपवर्तनीय सोपक्रमी इति द्वितीयोऽध्यायः।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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