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________________ २७ द्वितीयोऽध्यायः (बदले) ऐसा ग्रहण, छेदन, भेदन, और दहन हो सके ऐला औदारिक शरीर है। छोटे का बढ़ा, बड़े का छोटा, एक का अनेक, अनेक का एक, दृश्य का अदृश्य, अदृश्य का दृश्य, भूचर का खेचर, खेचर का भूचर, प्रतिघाति का अप्रतिघाती, अप्रतिघाति का प्रतिघाति वगेरा रूप से वेक्रिय करे वह वैक्रिय शरीर । थोड़े वक्त के लिये जो ग्रहण किया जा सके वह आहारक । तेज का विकार तेज वाला, तेज पूण और श्राप के अनुग्रह का प्रयोजन वाला वह तेजस. कर्म का विकार, कर्म स्वरूप, कर्मवाला और खुद के तथा दूसरे शरीर का आदि कारणभूत (शुरू करने के कारण वाला) वह कामण कारण, विषय, स्वामी प्रयोजन, प्रमाण, प्रदेश संख्या, अवगाहना, स्थिति अल्पबहुत्व के लिहाज से उपर लिखे पांच शरीरों में भिन्नता ( फरक ) है। (५०) नारकसम्मूच्छिनो नपुंसकानि । नारकी और संमूर्च्छन जीव नपुंसक वेद वाला ही होता है। अशुभ गति होने से यहाँ ये एक ही वेद होता है। (५१) न देवाः। देवता नपुंसक नहीं होते। यानी स्त्री (वेद) और पुरुष (वेद) दोनों होते हैं बाको के (मनुष्य और तिथंच) तीन वेद वाले होते है । (५२) औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषासङ्ख्येयवर्षायुषोऽन पवायुषः। उपपात जन्म वाले देव और नारक, चरम शरीर ( उसी भव मोक्ष जाने वाले ), उत्तम पुरुष (तीर्थकर चक्रवर्त्यादि शलाका पुरुष), असंख्यात वर्ष के आयुष्य वाले मनुष्य और तिर्यंच ( युगलिक), ये सब अनपवर्तन (उपक्रम से घटे नहीं ऐसे आयुष्य वाले होते हैं।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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