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________________ श्री तत्वार्थाधिगमसूत्रम् (३०) सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य । ' सब द्रव्य और सब पर्याय केवलज्ञान का विषय है, वह सब भाव ग्राहक और तमाम लोकालोक विषयक है इससे दूसरा कोई ज्ञान श्रेष्ठ नहीं (३१) एकादीनि भाज्यानि युगपदेकस्मिन्नाचतुर्यः । ६ - इनझानों में मत्यादि एक से लगाकर चार तक के ज्ञान एक साथ एक, जीव में होते हैं। किसी को एक, किसी को दो, किसी को तीन, किसी को चार, होते हैं, एक हो तो मतिज्ञान (यहाँ शास्त्र रूप ज्ञान होने से उसके बगैर भी मतिज्ञान लिया ) या केवलज्ञान होता है। दो हो तो मति और श्रृं तज्ञान होते हैं। क्योंकि श्रु तज्ञान मतिपूर्वक होता है इसलिये जहाँ श्रत होता है वहीं मंति होता है लेकिन मति होता है वहां श्रुत होता है या नहीं भी होता है । 'तीन वाले को मति, श्रत, अवधि या मति, श्र तं, मनःपर्याय और चार वाले की मति श्रत, अवधि और मनःपर्याय होते हैं। * पांच ज्ञान साथ नहीं होते हैं, क्योंकि केवल ज्ञान होते हैं तब दूसरे ज्ञान नहीं रहते इसलिये, कितनेक आचार्य महाराज कहते हैं कि केवलज्ञान की मौजूदगी में चारों ज्ञान रहते हैं जरूर लेकिन सूर्य की रोशनी में नक्षत्र आदि की रोशनी भीतर औ जाती है उसी तरह केवलज्ञान की रोशनी में दूसरे ज्ञानों की रोशनी भी भीतर आ जाती है फिर कितनेक आचार्य कहते हैं कि ये चार ज्ञान क्षयोपशम भाव से होते हैं, और केवली को वह भाव नहीं हैं, केवलज्ञान तों सायिक भाव वाला है, इसलिये नहीं होते हैं। ___तथा इन चारों ज्ञानों को क्रम से ( एक के बाद एक करके ) उपयोग होते हैं एक साथ नहीं होती और केवलज्ञान का उपयोग
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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