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________________ - नवमोऽध्यायः [३२] अनिष्ट वस्तुओं का योग होने पर उन अनिष्ट वस्तुओं का वियोग करने के लिये स्मृति समन्वाहार (चिन्ता) करना वह आर्तध्यान जानना। वेदनायाश्च । वेदना प्राप्त होने पर वह दूर करने के लिये चिन्ता करनी वह आर्त ध्यान है। [३३] विपरीतं मनोज्ञानाम् । __मनोज्ञ विषय-वेदना का विपरीत ध्यान समझना यानी मनोज्ञप्रिय विषय और प्रिय वेदना का वियोग होने पर उस की प्राप्ति के लिये चिन्ता करनी वह आर्त ध्यान जानना । [३४] निदानं च। काम से उपहत है पित्त जिनका ऐसे जीव पुनर्जन्म में वैसे विषय मिलाने के लिये 'जो नियाणा करें' वह आर्त्त ध्यान है। [३५] तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम् । ___ वह आर्तध्यान, अविरत, देश विरत और प्रमत्त संयतों को होता है (मार्ग प्राप्ति पीछे की अपेक्षा से यह बात समझनी). [३६] हिंसाऽनृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेश विरतयोः । हिंसा, अनृत (असत्य), चोरी के लिये और विषय (पदार्थ) की रक्षा के लिये संकल्प विकल्प करना वह रोद्र ध्यान जानना, वह अविरत और देशविरत को होता है । [३७] आज्ञाऽपायविपाकसंस्थानविचयाय धर्ममप्रमत्तसंय तस्य ।
SR No.022521
Book TitleTattvarthadhigam Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorLabhsagar Gani
PublisherAgamoddharak Granthmala
Publication Year1971
Total Pages122
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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