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________________ तरवार्थसूत्र प्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः॥२४॥ सारस्वतादित्यवत्यरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधारिष्टाश्च ॥२५॥ विजयादिषु डिचरमाः ॥ २६ ॥ औपपादिकमनुष्येभ्यः शेषास्तिर्यग्योनयः ॥२७॥ स्थितिरसुरनागसुपर्णद्वीपशेषाणां सागरोपमत्रिपल्योपमार्द्धहीनमिताः॥२८॥ नवं ग्रीवक पहिले कहे, स्वर्गसमूह स थान। .. ब्रह्मवर्ग लौकांत सुर आठप्रकार बखान ॥ १४ ॥ सारस्वत आदित्य हैं, बह्नी आरुण श्रेष्ठ । गर्दतोय अरु तुषित हैं, अव्याबाध अरिष्ट ॥१५॥ विजय आदि चारौ विमानके दो भवधरके मोक्ष पधारें । पंचम जान विमान व ते तदभव मुक्तिको पंथ निहारें ॥ नॉरकी देव कहे उपपादिक और मनुष्य सु छोड़ि बताये । शेष सु जीव तिर्यच लखौ इह भांति सु सूत्रमें भेद जताये ॥१६।। सुरकुमार आरबल जान । सागर एक कहो परमान ॥ तीन पल्य लख नाग कुमार । ढाई पल्य सुपरणकी सार ॥१७॥ द्वीपकुमार पल्य दो जान । डेढ पल्य शेषन परिमान ॥ २६ आदि शब्दसे मनुर्दिश भी प्रहण करना चाहिये । मवैय्या । चौपाई।
SR No.022517
Book TitleMokshshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChhotelal Pandit
PublisherJain Bharti Bhavan
Publication Year1867
Total Pages70
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Gujarati & Book_Devnagari
File Size5 MB
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