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________________ 86 जैन दर्शन के अनुसार लोक अथवा सृष्टि की अवधारणा को समझने के लिए धर्मास्तिकाय आदि छः तत्त्वों को विस्तार से समझना आवश्यक होता है। किन्तु आत्मा को संसारी अवस्था से मुक्त करने के लिए केवल पुद्गल द्रव्य को समझना आवश्यक होता है। क्योंकि कार्मण वर्गणा के पुद्गल ही कर्म रूप में परिणत होकर आत्मा के साथ चिपक जाते हैं तथा उसे संसार में परिभ्रमण करवाते हैं। ये कर्म-पुद्गल ही शुभरूप से उदय में आने पर पुण्य और अशुभरूप से उदय में आने पर पाप कहलाते हैं। जब तक ये कर्म-पुद्गल अपना फल नहीं देते, आत्मा के साथ चिपके रहते हैं, तब तक बंध कहलाते हैं। जब तक जीव का इस अजीव तत्त्व के साथ संबंध रहेगा तब तक जीव संसार से मुक्त नहीं हो सकता। अतः संसार से, कर्मों से अथवा दुःखों से मुक्ति चाहने वाले व्यक्ति के लिए ये आवश्यक है कि वह दुःख, दुःख के कारण और दुःख मुक्ति के उपायों को जानें। जानने के बाद दु:ख के कारणों को छोड़ें तथा दुःखमुक्ति के उपायों को ग्रहण कर उसका आचरण करे, जिससे कि वह दु:खमुक्त अवस्था मोक्ष को प्राप्त कर सके। 3. बंध तत्त्व दो पदार्थों के विशिष्ट संबंध को बंध कहते हैं। बंध का शाब्दिक अर्थ है-जुड़ना। जीव और कर्मपुद्गल के संबंध को बंध कहते हैं। बंध के दो प्रकार हैं-द्रव्यबन्ध और भावबंध। कर्म-पुद्गलों का आत्मप्रदेशों के साथ संबंध होना द्रव्यबंध है तथा जिन राग-द्वेषमय भावों के कारण कर्मबंध होता है वे राग-द्वेषमय भाव भावबंध हैं। जीव और कर्म परस्पर विरोधी स्वभाव वाले पदार्थ हैं, किन्तु बंध अवस्था में ये दूध में घी की भांति एकमेक हो जाते हैं। अनादि काल से आत्मा और कर्म का संबंध चला आ रहा है। इसी संबंध के कारण वह संसार में अनादि काल से परिभ्रमण कर रहा है। यह बंधन ही दुःख है।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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