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________________ 63 आचार्य शंकर ने ब्रह्म और माया का संबंध अनादि माना। सांख्य मत में प्रकृति और पुरुष का तथा बौद्ध दर्शन में नाम और रूप का संबंध अनादि माना गया है। जैन दर्शन भी आत्मा और शरीर के संबंध को अनादि मानता है। इनमें पौर्वापर्य (पहले और पीछे का) संबंध न होकर अपश्चानुपूर्वी संबंध है। अपश्चानुपूर्वी उसे कहते हैं, जहाँ पहले-पीछे का कोई विभाग नहीं होता। जीव और शरीर का संबंध अनादि काल से चला आ रहा है। -- भगवती सूत्र में प्रश्न पूछा गया कि मुर्गी अण्डे से पैदा होती है या अण्डा मुर्गी से। जिस प्रकार मुर्गी और अण्डे में पौवापर्य नहीं बताया जा सकता, वैसे ही जीव और पुद्गल के संबंध में पौर्वापर्य नहीं बताया जा सकता। यदि कर्मों से पहले आत्मा को मानें तो शुद्ध आत्मा में कर्म लगने का कोई कारण ही नहीं बनता और यदि कर्म को आत्मा से पहले माने तो आत्मा के बिना कर्म करेगा कौन? अतः आत्मा और शरीर के संबंध को अपश्चानुपूर्वी मानना ही समीचीन है। ___ आत्मा और शरीर का संबंध अनादि होते हुए भी अनन्त नहीं है। इसका अन्त (वियोग) हो सकता है। जिस प्रकार कोल्हू आदि के द्वारा तेल खल-रहित होता है, मंथनी आदि के द्वारा घी-छाछ रहित होता है, उसी प्रकार विशेष तपस्या और निर्जरा के द्वारा आत्मा और शरीर के इस संबंध को समाप्त किया जा सकता है। निष्कर्ष के रूप में हम कह सकते हैं कि आत्मा और शरीर का मुख्य संबंध सेतु आश्रव है। यह संबंध किसी एक की ओर से नहीं होता अपितु आत्मा और शरीर दोनों की तरफ से होता
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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