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________________ 18 रहने की क्षमता भी स्वयं में ही विद्यमान है। फिर भी अधर्मास्तिकाय के अभाव में वे स्थिर नहीं हो सकते। वृक्ष पथिकों को अपनी छाया में ठहरने के लिए प्रेरित नहीं करता किन्तु कोई पथिक यदि ठहरता है तो उसमें अपेक्षित सहायता करता है। धर्मास्तिकाय की भांति अधर्मास्तिकाय भी पूरे लोक में व्याप्त है। अलोक में उसका अभाव होने के कारण जीव और पुद्गल की स्थिति अलोक में नहीं होती ! भगवती सूत्र में गौतम ने भगवान महावीर से पूछा - " भगवन् ! स्थिति - सहायक तत्त्व (अधर्मास्तिकाय) से जीवों को क्या लाभ होता है?" भगवान ने कहा - " गौतम ! स्थिति का सहारा नहीं होता तो कौन खड़ा रहता? कौन बैठता ? सोना कैसे होता ? कौन मन को एकाग्र करता? मौन कौन करता? कौन निस्पन्दन बनता? यह विश्व चल ही होता। जो स्थिर है, उन सबका आलम्बन स्थिति - सहायक तत्त्व अधर्मास्तिकाय ही है। 91 अधर्मास्तिकाय का स्वरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से अधर्मास्तिकाय का स्वरूप इस प्रकार समझा जा सकता है द्रव्य की दृष्टि से क्षेत्र की दृष्टि से काल की दृष्टि से भाव की दृष्टि से अगतिशील है। ―― यह एक अखण्ड द्रव्य है। - करता है। यह — - सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है। यह अनादि-अनन्त हैं। यह अमूर्त, अभौतिक, चैतन्यरहित तथा गुण की दृष्टि से - पदार्थों के स्थिर रहने में अपेक्षित सहायता
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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