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________________ 182 इंगिणीमरण संथारा स्वीकार करने वाला एक निश्चित भू-भाग में रहता है, जैसे अपने कमरे तक या घर तक तथा किसी भी प्रकार की सेवा वह किसी से भी नहीं लेता, अपने सभी कार्य स्वयं करता है। 3. पादोपगमन पादोपगमन संथारा उत्कृष्ट संथारा है। इसमें चतुर्विध आहार का त्याग किया जाता है तथा संथारा करते समय वह जिस स्थान विशेष पर होता है, वहीं पर कायोत्सर्ग में स्थिर हो जाता है। जिस प्रकार वृक्ष से टूटकर नीचे गिरी हुई डाली बिल्कुल स्थिर रहती है, उसी प्रकार इस संथारा में साधक पूर्ण स्थिर रहता है। हलन-चलन नहीं करता। वह अपने शरीर की परिचर्या न स्वयं करता है और न दूसरों से करवाता है। इस प्रकार इस संथारा को स्वीकार करने वाला मृत्यु-पर्यन्त शारीरिक क्रियाओं का निरोध करते हुए भूमि पर गिरी हुई वृक्ष की डाली की तरह स्थिर रहता है। . संलेखना : संथारा कब करना चाहिए उत्तराध्यययन सूत्र में कहा गया- जब तक शरीर में शक्ति है, उससे नए-नए गुणों की उपलब्धि हो रही है, तब तक जीवन का पोषण करना चाहिए। जब वह न हो तब विचारपूर्वक इस शरीर का ध्वंस कर देना चाहिए अर्थात् संलेखना-संथारा स्वीकार कर लेना चाहिए। आचार्य समन्तभद्र ने लिखा-जिसका प्रतिकार न किया जा सके ऐसे असाध्य दशा को प्राप्त हुए उपसर्ग के समय, दुर्भिक्ष, जरा एवं रुग्णस्थिति में या अन्य किसी कारण के उपस्थित होने पर संलेखना-संथारा स्वीकार करना चाहिए। संलेखना ग्रहण करने से पूर्व इस बात की जानकारी करनी आवश्यक है कि जीवन और मरण की अवधि कितनी है। यदि शरीर रुग्ण हो गया है पर जीवन की अवधि लंबी हो तो संलेखना-संथारा करने का विधान नहीं है।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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