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________________ 165 श्रावक इन प्रतिमाओं की साधना को क्रमशः स्वीकार करता है। पहली प्रतिमा का समय एक मास, दूसरी प्रतिमा का समय दो मास, तीसरी प्रतिमा का समय तीन मास, इसी प्रकार क्रमशः ग्यारहवीं प्रतिमा का समय ग्यारह मास है। जैसे-जैसे श्रावक आगे की प्रतिमा को स्वीकार करता है, उसकी भावधारा विशुद्ध होती जाती है। आगे की प्रतिमा में जाने पर भी उसे पहले वाली प्रतिमाओं का पालन करना आवश्यक होता है। इन. प्रतिमाओं के आधार पर आचार्य कुन्दकुन्द ने श्रावक को तीन भागों में विभक्त किया है। प्रथम छः प्रतिमाओं को धारण करने वाला जघन्य श्रावक, सात से नौ इन तीन प्रतिमाओं को धारण करने वाला मध्यम श्रावक तथा दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमा को स्वीकार करने वाला उत्तम श्रावक कहलाता है। पंडित आशाधरजी ने प्रथम छः प्रतिमाधारी को गृहस्थ, सात से नौ-इन तीन प्रतिमाधारी को वर्णी या ब्रह्मचारी तथा दसवीं और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी को भिक्षुक कहा है। 4. जैन जीवनशैली जन्म और मृत्यु जीवन के दो किनारे हैं। उन पर हमारा अधिकार नहीं है। कब, कहाँ, किस रूप में जन्म लेना या मृत्यु को प्राप्त करना, यह व्यक्ति के वश में नहीं है। जन्म और मृत्यु के बीच का जो जीवन है, उस पर व्यक्ति का अधिकार है। उस जीवन को व्यक्ति अपनी इच्छानुसार जी सकता है। अच्छा जीवन जीने के लिए आवश्यक है-अच्छी जीवन-शैली का होना। शैली शब्द शील से बना है। शील का अर्थ है-स्वभाव। संस्कृत-अंग्रेजी कोश में शैली का अर्थ-बिहेवियर-व्यवहार किया गया है। जीवनशैली से तात्पर्य है-जीवन का व्यवहार अथवा जीवन की कार्यप्रणाली। एक गृहस्थ की जीवनशैली में कुछ सहज अच्छे संस्कार बन जाएँ, यह अपेक्षित
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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