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________________ 129 इनके प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग करना। जिस प्रकार भारी चीज को तालाब में फेंकने पर वह नीचे डूब जाती है तथा हल्की चीज सदैव सतह पर तैरती रहती है। उसी प्रकार जो व्यक्ति परिग्रह के भार से, उसके प्रति मूर्च्छा और आसक्ति के भार से भारी होता है। वह संसार में डूबा रहता है तथा इनसे रहित व्यक्ति संसार से मुक्त होता है। किन्तु उसके संग्रह जीवन को चलाने के लिए परिग्रह को पूर्ण रूप से नहीं छोड़ा जा सकता। वस्त्र, पात्र, उपकरण आदि आवश्यक परिग्रह ( वस्तुएँ) रखना होता है। परिग्रह की सूक्ष्म व्याख्या करते हुए जैन दर्शन में कहा गया- 'वस्तु अपने आप में परिग्रह नहीं है। की इच्छा, उस पर ममत्व और मूर्च्छा का नाम धर्म की साधना करने वाले को संयमोपयोगी आवश्यक उपकरणों के अतिरिक्त उपकरण नहीं रखने चाहिए। आवश्यक वस्तुओं का भी धीरे-धीरे संयम करना चाहिए तथा उन पर ममत्व बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। परिग्रह है। लाघव 6. सत्य जो तत्त्व जैसा है उसको उसी रूप में समझना और उसका उसी रूप में कथन करना सत्य धर्म है। जैन परम्परा में सत्य के सम्बन्ध में गहराई से चिन्तन किया गया है। महाव्रतों में उसे द्वितीय महाव्रत तथा समिति गुप्ति में भी उसे द्वितीय स्थान पर रखा गया है। गुप्ति में बोलने का निषेध है तथा समिति में कैसे बोलना चाहिए इसका विवेक है। लेकिन सत्य का सम्बन्ध केवल वचन (बोलने और न बोलने) तक ही सीमित नहीं है। सत्य आत्मा का धर्म है। वचन और शरीर तो उसकी अभिव्यक्ति के माध्यम हैं। इस प्रकार जो तत्त्व जैसा है, उसे वैसा ही जानना और उसी रूप में राग-द्वेष से रहित होकर वीतराग भाव में परिणत होना सत्य धर्म है।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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