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________________ 128 4. मार्दव दस धर्मों में चौथा धर्म है-मार्दव। आर्जव की भांति मार्दव भी आत्मा का निज स्वभाव है। 'मृदोर्भावः मार्दवम्' मार्दव का अर्थ है-मृदुता, कोमलता। मान कषाय के कारण व्यक्ति की मृदुता समाप्त हो जाती है, जिससे वह अपने को बड़ा और दूसरों को छोटा समझने लगता है। जैन परम्परा में जाति, बल, कुल, रूप, तप, ज्ञान, ऐश्वर्य और सत्ता-ये आठ मद माने गए हैं। इनके कारण व्यक्ति के भीतर अहंकार पैदा होता है। उत्तम ज्ञान, तप, बल आदि होने पर भी अपनी आत्मा को मान कषाय से मलिन न होने देना ही उत्तम मार्दव है। मार्दव धर्म की प्राप्ति के लिए पहली शर्त है शरीर आदि पर-पदार्थों के प्रति एकत्व बुद्धि को छोड़ना। शरीर के साथ एकत्व बुद्धि होने पर ही जाति, कुल, बल आदि का अहंकार आता है। मार्दव धर्म के प्रकटीकरण के लिए मन, वचन और शरीर-तीनों में मृदुता होना आवश्यक है। मन से मृदु होने पर वैचारिक कठोरता नष्ट होती है। वचन से मृदु होने पर व्यक्ति सबके लिए प्रिय बनता है। शरीर से मृदु होने पर व्यक्ति किसी को पीड़ा नहीं पहुंचाता। .. इस प्रकार साधक मार्दव धर्म की साधना से मान कषाय पर विजय प्राप्त करता है। 5. लाघव ____ लाघव का अर्थ है-हल्कापन। इसका दूसरा नाम आकिंचन धर्म भी है। जब तक व्यक्ति बाह्य और आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग कर अकिंचन नहीं बनता तब तक लाघव धर्म की साधना संभव नहीं हो पाती। अकिंचन का अर्थ है-धन, धान्य, शरीर आदि बाह्य परिग्रह तथा कषाय, कर्म आदि आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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