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________________ 113 क्षपकश्रेणी से आगे बढ़ने वाला साधक मोहकर्म को क्षीण-क्षय करता हुआ आगे बढ़ता है और दसवें गुणस्थान के बाद वह सीधा बारहवें गुणस्थान में प्रवेश कर मोहकर्म का सर्वथा क्षय कर. देता है। 13. सयोगीकेवली गुणस्थान . केवलज्ञान प्राप्त होने पर भी जो केवली मन, वचन और काया के योग-प्रवृत्ति से युक्त होता है, उसके गुणस्थान को सयोगीकेवली गुणस्थान कहते हैं। इस अवस्था में ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय-ये चार घातिकर्म सर्वथा क्षीण हो जाते हैं। आत्मा में अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त आनन्द और अनन्त शक्ति रूप आत्म-स्वभाव प्रकट हो जाता है। 14. अयोगीकेवली गुणस्थान जो केवली अयोगी-मन, वचन और काय की प्रवृत्ति से रहित होता है, उसके गुणस्थान को अयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है। इस गुणस्थान का स्थितिकाल अत्यन्त अल्प होता है। जितना समय पांच हस्व स्वरों अ, इ, उ, ऋ, ल को मध्यम स्वर से उच्चारित करने में लगता है, उतने ही समय तक इस गुणस्थान में आत्मा रहती है। तत्पश्चात् वह अनादिकालीन कर्म-बन्धन को तोड़कर सर्वथा मुक्त हो जाती है। उसका संसारी जीवन समाप्त हो जाता है। जन्म-मरण की परम्परा का अन्त हो जाता है। गुणस्थानों का कालमान ___प्रथम गुणस्थान का कालमान अनादि-अनन्त, अनादि-सान्त और सादि-सान्त होता है। अभव्य प्राणी-जिनमें कभी भी मोक्ष जाने की योग्यता नहीं होती-अनादि काल से मिथ्यादृष्टि हैं और अनन्तकाल तक मिथ्यादृष्टि ही रहेंगे। अभव्य प्राणी की अपेक्षा से पहले गुणस्थान
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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