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________________ 112 गुणस्थान कहा जाता है। इस गुणस्थान में क्रोध, मान, माया-ये तीन कषाय तो सर्वथा उपशांत या क्षीण हो जाते हैं। सिर्फ लोभ-कषाय अल्प मात्रा में रहता है। 11. उपशांतमोह गुणस्थान जिसका मोह अंतर्मुहूर्त के लिए सर्वथा उपशांत हो जाता है, उसके गुणस्थान को उपशांतमोह गुणस्थान कहा जाता है। दसवें गुणस्थान में जो सूक्ष्म लोभ शेष था, उस लोभ का यहां उपशम हो जाता है, किन्तु वह पूर्ण रूप से नष्ट नहीं होता। जैसे राख से ढके हुए अंगारे बुझे हुए से प्रतीत होते हैं, किन्तु थोड़ी-सी हवा से वे अंगारे पुनः जल उठते हैं, उसी प्रकार इस गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त तक मोह उपशम-शांत रहता है पर पुनः निमित्त मिलने पर वह प्रकट हो जाता है। 12. क्षीणमोह गुणस्थान जिसका मोहकर्म सर्वथा क्षीण हो जाता है, उसके गुणस्थान को क्षीण-मोह गुणस्थान कहा जाता है। मोह के सर्वथा क्षीण होते ही आत्मा पूर्ण वीतराग हो जाती है। जैन दर्शन के अनुसार आठवें गुणस्थान से दो श्रेणियाँ निकलती हैं-उपशमश्रेणी और क्षपकश्रेणी। जो साधक मोहकर्म का उपशम करते हुए आगे बढ़ते हैं, उनकी श्रेणी उपशमश्रेणी कहलाती है और जो साधक मोहकर्म का क्षय करते हुए आगे बढ़ते हैं, उनकी श्रेणी क्षपकश्रेणी कहलाती है। उपशमश्रेणी से आगे बढ़ने वाला ग्यारहवें गुणस्थान में मोह को सर्वथा उपशम-शांत कर देता है। किन्तु अन्तर्मुहूर्त के बाद मोह का पुनः उदय होने से वह इस गुणस्थान से च्युत होकर नीचे के गुणस्थानों की ओर गतिशील होता है। बीच में ही संभल जाने पर छठे, पांचवें, चौथे किसी भी गुणस्थान में स्थिर हो सकता है और न संभल पाने पर पहले गुणस्थान तक भी पहुंच सकता है।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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