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________________ 102 2. संवेग - जिसमें मोक्ष प्राप्त करने की इच्छा होती है। 3. निर्वेद - जिसमें संसार के प्रति अनासक्ति होती है। 4. अनुकम्पा - जिसमें प्राणी मात्र के प्रति करुणा का भाव होता है। 5. आस्तिक्य - जिसमें सत्य के प्रति निष्ठा होती है। आत्मा, कर्म, पुनर्जन्म, मोक्ष आदि के अस्तित्व में विश्वास होता है। जिनमें ये पांच लक्षण पाये जाते हैं, वे सम्यक् दृष्टि होते हैं। भगवान पार्श्वनाथ ने संघबद्ध साधना का प्राण संगठन और संगठन का प्राण सम्यक्त्व को बताया । भगवान् महावीर ने इस दृष्टि को विशेष पोषण देते हुए नवीन अष्टांग व्यवस्था की। सम्यक् दर्शन की साधना के आठ अंग हैं 1. निःशंकित - सम्यक् दृष्टि वाला व्यक्ति वीतराग सर्वज्ञ भगवान के वचनों में संशय नहीं करता । 2. निष्कांक्षित - सम्यक् दृष्टि वाला व्यक्ति एकान्त दृष्टि वाले दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा नहीं करता। धर्माचरण के द्वारा भौतिक सुख-समृद्धि पाने की इच्छा नहीं करता। 3. निर्विचिकित्सा - सम्यकदृष्टि वाला व्यक्ति धर्म के फल में संदेह नहीं करता कि मैं जो धर्म का आचरण कर रहा. हूँ, उसका फल मिलेगा या नहीं । 4. अमूढदृष्टि – सम्यकदृष्टिं वाला व्यक्ति एकान्तवादी तीर्थिकों के वैभव को देखकर उनमें मूढ़ नहीं बनता । 5. उपबृंहण – सम्यकदृष्टि वाला व्यक्ति अपने सम्यक् दर्शन को और अधिक दृढ़ और पुष्ट बनाता है। प्रमादवश हुए दोषों का प्रचार नहीं करता और अपने गुणों का गोपन नहीं करता।
SR No.022500
Book TitleJain Tattva Mimansa Aur Aachar Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRujupragyashreeji MS
PublisherJain Vishvabharati Vidyalay
Publication Year2010
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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