SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 94
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ नयर हस्ये नैगमनयः का संग्रहनय में प्रवेश हो जायगा अर्थात् नैगम और संग्रह ये दो एक हो जायेंगे । इसलिए नैगम में संग्रहनयत्व का प्रसंग आ जायगा। तथा जहाँ विशेष को प्रधानरूप से और नामान्य को गौणरूप से नगम स्वीकार करेगा, वहाँ नैगम और व्यवहारनय में अभेद हो जाने से नैगम में व्यवहारनयत्व का प्रसंग आ जायगा, क्योंकि व्यवहार नय भी विशेष को मुख्यरूप से और सामान्य को गौणरूप से स्वीकार करता है । तब तो लोक प्रसिद्ध सामान्य-विशेषादि उभयरूपार्थ स्वीकर्तृत्वरूप गम का लक्षण बताया गया है, वह संगत नहीं लगता है [गौण मुख्यभावके स्वीकार में आपत्ति नहीं है । इस आशंका की निवृत्ति के लिए उपाध्यायजी बताते हैं कि तृतीयपक्ष का आश्रय करने में कोई दोष नहीं है । तब यह शंका उठती है कि तृतीयपक्ष का आश्रय करने मे ही तो संग्रह और व्यवहार इन दोनो में से अन्यतर में नैगम का प्रवेशरूप दोष दिया है, फिर कोई दोष नहीं होता है, ऐसा कहना कैसे संगत होगा ? इसका उत्तर यह है कि उधेिय का अर्थात नैगम और संग्रह इन दोनों उपधेर्या का सार्य होने पर भी उपाधियों का, अर्थात् नैगमत्व और संग्रहत्व इन दोनों का साथ ही होता है तथा नैगम और व्यवहार इन दोनों उपधेयों का साङ्कर्य होने पर भी नैगमत्व और व्यवहारत्व इन दोनों उपाधियों का सार्य नहीं होता है, इसलिए तृतीय पक्षोक्त दोष को अवसर यहाँ नहीं आता है । भावार्थ यह है कि उपाधिपद से व्यावर्तक धर्म यहाँ विवक्षित है। नैगम में गमत्व धर्म उपाधि है, वही धर्म व्यवहारादि नयों से नैगमनय का व्यावर्तन करता है । ऐसे ही संग्रह में संग्रहत्व व्यावर्त्तक धर्म है । व्यवहार नय में व्यवहारनयत्व व्यायक धर्म है । इसलिए संग्रहत्व और व्यवहारत्व भी उपाधिशब्द से कहे जाते हैं। उपाधिरूप इन धर्मो से व्यावर्तनीय नगम, संग्रह और व्यवहारनय ये सब उपधेय कहे जाते हैं । साङ्कर्य शब्द से यहाँ सामानाधिकरण्य विवक्षित है । समानाधिकरण्य से एकार्थत्व अथवा अभिन्नार्थत्व का संकेत मिलता है । कारण, 'भिन्न प्रवृत्तिवाले शब्दों का एकार्थत्व' यही सामानाधिकरण्य का लक्षण शास्त्रकारों ने माना है । सामान्य का मख्यरूप से और विशेष का गौणरूप से जहाँ स्वीकार हो, ऐसा अभिप्रायविशेषरूप संग्रहनय संग्रहनय त्वरूप उपाधि का उपधेय है और वसा अभिप्रायविशेषरूप नैगमनय नैगमनयत्वरूप उपाधि का उपधेय है क्योंकि ये दोनों संग्रहत्व और नैगमत्व धर्मों से क्रमशः व्यावर्तित होते हैं । इन दोनों उपधेयों में सार्य अर्थात् एकार्थत्व यद्यपि आ जाता है, क्योंकि नैगम पद का प्रवृत्तिनिमित्त नैगमत्व है और संग्रहपद का प्रवृत्तिनिमित्त संग्रहत्व है । नैगमत्व और संग्रहत्व ये दोनों प्रवृत्तिनिमित्त परस्पर भिन्न हैं। इन दोनों भिन्न प्रवृत्तिनिमित्तरूप से बोध्यमान अर्थ एक ही है, जिस अर्थ को संग्रह पद बोधित करता है उस अर्थ को मैगम भी बोधित करता है । इसलिए उपधेयगत सांकर्य है, तथापि संग्रहत्व और नेगमत्व इन दोनों उपाधियों में एकार्थत्वरूप सांकर्य नहीं है । तथा प्रधान रूप से विशेष का और गौणरूप से सामान्य का अभ्युपगम हो, ऐसा अभिप्राय विशेष व्यवहार पद का बोध्य है और वहां व्यवहारगत व्यवहारत्वरूप उपाधिका व्यावय
SR No.022472
Book TitleNay Rahasya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYashovijay Gani
PublisherAndheri Gujarati Jain Sangh
Publication Year1984
Total Pages254
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy